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________________ [ गास्नमालिलो.३ के भेव से विवादि में आनम्त्य होने के कारण एकस्व को पृथ्वीस्व का आश्रय मानने की अपेक्षा द्वित्मावि को पृथ्वी का आश्रम मामले में गौरव है। घुसरी बात यह है कि पृथ्वीत्व का मान आश्रय मेद का ज्ञान न रहने पर भी होता है किन्तु वित्वावियसि माममे पर भाषयभेद के अमानवशा में विश्वावि का ग्रह न हो सको से उस समय पृथ्वीरव का ज्ञान न हो सकेगा । पृथ्वीत्व को एकत्रवृत्तित्य और एकपषस्ववृतित्व को लेकर भी विनियमना विरह का चद्धावन नहीं किया जा सकता क्योंकि एकधरव अवधि के ज्ञान से ज्याम्प होने के कारण बिलम्ब पाया है। पूरी बात यह है कि मध्यमत में पृथकाव का भेव में अन्साय होने से उसमें गुणत्व का अभाव है। अतः एकपथक्त्व अभावात्मक होने से पृथ्वीत्यादिजाति का आश्रय नहीं हो सकता। [ एकत्रज्ञानाभावदशा में भी घटत्व का ज्ञान संभव-उत्तरपच ] किंतु यह मत भी निम्नलिखित कारणों से निरस्त हो जाता है जसे,... बोषवपा एट में एकस्व का नान न होने पर भी छात्र का नाम होता है किन्तु घटस्वको एकत्ववृत्ति माल पर उसको उपपत्ति न हो सकेगी । एवं घटत्व को एकस्वति मानने पर घट में घटस्व-इन्द्रियसंमिक न होगा। मतः घट में घटत्व का ज्ञान नहीं हो सकता । यदि घटस्वज्ञान में वक्षःसंयुक्तनिरूपित स्वाश्रयसम्बन्धावप्रवृत्तिस्य को संनिकर्ष माना जायगा तो वक्षःसंयुक्तमिपित समवायसम्बनधाषिप्रवृतिस्थाको संकि मामले की अपेक्षा गौर होगा। तया दूसरी बात यह कि यदि भासंपुक्तनिरूपित स्वाश्रमसम्बवावच्छिमसिस्व को संनिकर्ष माना जायगा तो यह संनिकर्ष घट तारा एकस्वस्थ के साथ भी हो सकेगर अतः घट में एकस्वत्व के प्रत्यक्ष की भी मापत्ति होगी । प्रतः यह मत सछ है । किच, अतिरिक्तसामान्यवन तत्संवन्धोऽपि शिष्याख्योऽतिरिक्तः स्वीक्रियताम् , इति भावाभाव साधारणजात्यनभ्युपगमे बिनापसिद्धान्तं किं बाधकम् ! कथं खादावनुगतव्यवहारः १ कथं या तादात्म्येन जन्यसतः प्रतियोगितया सत्य जन्यतावच्छेदकम् ? न हि जन्याभावचं तव , जन्यत्वस्य धंसगर्भ वेनात्माश्रयान् । न च कालिंकन घटत्य पटत्वादिमचं वत, अनन्तकार्यकारणभावप्रसङ्गाद । यदि चाखण्डोपाधिरूपमेन ध्वसत्यादिकम् , तदा पटत्वादिकमायखण्डोपाधिरूपमेवास्तु, इति जातिविलय एवायातो वानप्रियस्प !। विशिष्टयनामक सम्बन्ध से जातिमान अभाव सिद्धि । इस संदर्भ में यह मी विचारणीय है कि से विशेष प्रानयों से अतिरिक्त सामान्म का अस्तित्व माना जाता है उसीप्रकार उसका वैशिष्ट्य नामक अतिरिक्त सम्बन्ध भी माना जा सकता है। सषा यह सम्बग्य मात्र प्रभाव दोनों का होगा और उसी से सामान्यादि के मामयों में सामाम्यप्रकारक बुद्धिमीर भूतलाव में घटाघभावप्रकारक बुद्धि की भी उपपत्ति होगी। यदि यह कहा जाय कि'सामान्य का भावाभावसाधारण सम्बन्ध मानने पर जाति भी भाषाभाषताधारग होगी। अत: ऐसे सम्बन्ध की पाल्पना मनुचित है- सो यह ठीक नहीं है क्योंकि भावाभावसाधारण जाति के मन्युपगम में नेपासिक वारा स्वीकृत 'प्रभाव में भाति नहीं होती इस सिमन्तभंग के अतिरिक्त और
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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