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[ गास्त्रपात सालो. २१
पोषकत्वमपि तस्य स्वभावचिन्यादेव । एवं च पृथिव्यामेव गन्धः' इत्यत्र पृथिव्यां गन्धः, पूयिष्यन्यस्मिन् न गन्धः' इत्यन्ययः । 'चैत्रो जलमेव मुक्ते' इत्यत्र चित्रो जलं मुक्ते, जलान्यत् न भुक्त' इति । 'पार्थ एव धनुर्धर' इत्यत्र 'पार्थो धनुधरः, पार्थान्यो न धनुर्धरः' इति । 'शंखः पाण्डः, न पाण्डुरान्यः' इति' इति वदन्ति |
• [एवफार का अर्थ अन्य और व्यवच्छेद-मतान्तर ] अन्य विद्वानों के मतानुसार 'एच' का अर्थ है यम्य मोर म्यवसझेव । व्यवच्छेय भी दो प्रकार का है-प्रत्यान्ताभाव और प्रायोन्मामाव । एक्कार प्रायः समभिव्याहत प्रातिपषिक[=नाम] का समामविभक्तिक होता है किन्तु एब पर उत्तर विभक्ति का लोप हो जाने से उसका प्रयोग नहीं किया पाता । अथवा स्वभावतः एवषद के संनिधान से प्रतिबन्ध हो जाम से विभक्ति का श्रवण नहीं होता । एषपदोतरविमाश्यर्थ में एनपद के अन्यरूप अर्थ का अन्वय होता है. व्यवच्छेवरूप श्रयंका प्रत्यय नहीं होता। समभित्यात प्रातिपविक के अर्थ का एक्कार से उपस्थित सम्यरूप प्रषं में मी अम्बय होता है। इसी प्रकार उसके अत्यन्तामाप और अन्योम्यामावरूप अर्ष के भी अन्वयका व्यवस्थित नियम होता है 1 'एषपर अपने एक अर्थ से अन्वित अपने ही अन्य अर्थका पोषक होता है'-मह भी उसके स्वमाया ही होता है किन्तु
यो का ऐ बाब नहीं है, क्योंकि अन्यत्र भनेकार्थक हरि' आदि पक्षों में प्रपने एक अर्थ से अन्वित अपने ही अन्य अर्थ की पोषकता नहीं होती। इस प्रकार पृथिव्यामेष गम्घ.' इस पाक्य से 'पृषि मन्ष:- पृषिम्यन्यस्मिन् न गन्धः' यह बोध होता है। पूसरा बोष एवं पत्र के संनिधान से सम्पन्न होता है क्योंकि एष पद के 'अन्य' रूप मर्थ में पृथ्वी पदार्थ का अविष हो जाता है और 'अन्य' रूप प्रपंका एषपदोसर सप्तमीविभवस्यर्थ वृत्तियधिशेष में अन्वय होता है। उसका अन्वय एयपद के द्वितीय अर्थ अध्यन्तामाब में होता है । 'चत्रो जलमेव मुक्ते' इस वाक्य से "चत्रो जालं मुलते-'मला-यद न मुहाते' यस प्रकार का बोध होता है एवं 'पाचं एक धनुघर' इस वाक्य से 'पार्थो धनुषरः पार्थान्यो म धनुर्धरः' यह बोध होता है। इसी प्रकार गांख: पाण्डरः एच' इस पाक्य से 'शंखः पार न पाण्डुरान्यः' इस प्रकार का घोष होता है । अन्तिम दोनों वाक्यों से वित्तीय भर्य का बोध एवपद के अन्य और सम्योग्यामार का प्रथं द्वारा निष्पन्न होता है।
अम्र मः-'प्रत्यक्षं मानमेय' इत्पनाऽस्तु मानत्वायोगव्यवच्छेदः, मानान्य योगय्यबच्छेदी वा, तथापि 'प्रत्यक्षेऽनुमानत्वेन न मानत्त्वम् , 'प्रत्यक्षमनुमानत्वेन न मानम् ' इति प्रतीत्या विशेषरूपेण सामान्याभावस्य, विशेषरूपेण सामान्य मेदस्य वा सिद्धो न सर्वथा नव्यचच्छेदः शक्यः । - "शक्य एव मानस्वत्वपर्याप्ताबनिनप्रतियोगिताकोऽयोगा, मानन्यपर्याप्नाचछिमपतियोगिताको बाययोगो इपयन्छेत्तुम् , विशेषरूपेण सामान्यामारस्पातिरेके नस्य विशेषरूपपर्याप्तालिमप्रतियोगिनाकवाव , 'अनतिरक च विशिष्टरूपपयांप्सायनियनपतियोगिवाकस्मात्" इति चेत् ? न, तब विशिष्टानतिरेकेण शुद्धाऽपर्याप्तस्य शिशिष्टाऽपर्याप्तत्वात् । अतिरिक्तपर्याप्तिकम्पने नत्र विशिष्टनिरूपितत्व-तत्तवपन्धादिगधेपणायाममनवम्यानात् । 'अनु