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________________ स्या का एवं हिम्को विवेचन ] १३१ लागा द्वारा घोषित होता है क्योंकि एतवमतितमनार में मंत्राम्सकी कमाविपाककर्मत्यादि का ग्यवस्थेव अशक्य है क्योंकि पाक मेश्रककाव के प्रश्बय से अवरुद्ध है, अतः उसमें मंत्रालयका करण का अन्वय नहीं हो सकता है, मस: मंत्रायककपाककर्मत्व में एष पद के प्रात्पर्यग्राहकका संनिधान होने से उस मर्म में एमकार को लक्षणा नहीं हो सकती। (७) सीप्रकार 'मारमनंव तेमनं जायते' इस्पावि बावों में एपकार से आरमान्यालमवेत मानविषपश्व की अनसिसि होने से उसका अपवयव महीं हो सकता । असा 'आत्मनैव ज्ञायते प्रथया इह भव' त्यादि के अनुसार एष पद की आरमायसमवेतत्व में लक्षणा करके जाना में उसके व्यवसका अथवा भारमपब की अनात्मा में लक्षणा करके उसमें तेमनविषयकाहानाथालयस्व के व्यवसलेव का बोध माममा चाहिये। अपरे पृन:-एवकारस्यात्पन्नाभायः, अन्योन्याभाबश्वार्थः । 'पृथिव्यामेव गन्धः' इत्यत्र पृथिवीपदे पृथिव्यन्यस्मिल्लक्षणया गन्धे प्रकृत्यास्तिविभवम्यर्थस्य लाणिकान्धितविभक्यान्वितस्यैवफारार्थन्यवच्छेदस्य घाऽन्वयः । 'पार्थ एय धनुर्धरः' इत्यत्र शक्य पार्थे विशेषयस्य धनुर्धरस्प सादात्म्येन, लक्ष्ये च पार्थान्यस्मिन धनुर्धरान्योन्याभावस्यापाराधेयभावेन । 'शीत एव स्पर्शो अलवृत्तिः' इत्यत्र शीतपशीपस्थापितयोः शीत-तदन्ययोरभेदेन स्पर्मोऽन्वयः, शीतान्वितस्पर्श जलवृत्तितादात्म्यम् , शीतान्यस्पर्श च जलवृत्तरन्योन्याभाववस्वं प्रतीयत इण्याथलम्'। [एत्रकार का अर्थ अत्यन्ताभाव-अन्योन्याभाव, अन्यमत ] ___ अन्य विद्वान् एवहार का दो अर्थ मानते हैं-मस्पाताभाष पार अन्योन्याभाव । इसके अनुसार 'पृथिव्यामेष गन्धः' इस वाक्य में पृथ्वीपर को पृथ्वी अन्ध में लक्षणा होमे से गन्ध में पृथ्वी रूप प्रकरपर्थ से अन्तित समवेतत्याप विभक्ति-अयं का और पृथिवी-प्रत्यरूप लाक्षणिकार्य से अन्वित समवेतस्वरूप बिभात्यर्थ सेषित एवकारार्थ प्रयन्साभाव का अम्बय होता है इसलिये उस पाक्य से स्वीसमवेत: पृथोभिलासमवेतः गन्धः' इस प्रकार का बोध होता है। पार्य एष धमुधर स वाक्य में पारूपशपयार्य में धनु ररूपविशेषण का ताबारम्थसम्बाध से और पार्याम्यरूप लम्याध में धनुर्धर शन्धार्थ से प्रषित मन्योन्यामायाप एयकार्य का प्राधा राधेवभाष स्वरूपसम्बन्ध से सम्मय है। एवं 'शोत एप स्व: अलवृतिः' इस वाक्य में पासपा के पार्थ पोत घोर लाक्षणिकार्य शोतान्य का अमेव सम्बन्ध से स्पर्श में मन्वय होता है । एवं शीतपद के शक्यार्थ से निवास स्पर्श में बलत का सावा. हम्प सम्बध से एवं शोतान्यरूप लाक्षणिकार्य से अश्विात स्पों में अलसिशया से अग्यिस अन्योन्याभावरूप एवकारार्थ की प्राप्ति होती है। इस प्रकार उस्तवाक्य से 'शोत: स्पर्य जालतिः शीतास्यस्पर्शः जललिमिनइस प्रकार का बोध होता है। अन्ये तु–'अन्यो व्यकछेदशार्थः । व्यवच्छेदोऽपि च द्वधी-अत्यन्ताभावश्च, अन्योन्याभावश्च । एचकारे च प्रायेण समभिटयाहतप्रातिपदिकसमानविभक्तिकन्यम् , विभक्त श्रवण तु लुप्तत्वात् , स्वभाववैचित्र्याच्च । तदर्थेऽन्यस्यान्वयो न व्यवच्छेदस्य, समभिव्याहतप्रातिपदिकार्थस्य चैत्रकारोपस्थितेऽन्यपि ममप्यन्ययः । एवमन्ययान्तरनियमोऽपि, स्वीकार्यान्विनार्थान्तर
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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