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________________ [ शास्त्रमा स्त०७इलो. २१ उसका प्रतियोगिता सम्बन्ध से प्रापय होता है। यद्यपि अन्यत्र एकपर लक्ष्य और शस्य अर्थ का परस्पर में अन्वय नहीं होता है किन्तु एव पर शक्य और लक्मार्थ का एक्कार से मिपन्धित व्युत्पत्ति विशेष से परस्पर में मन्यम हो सकता है। अतः एव पक्ष के हास्या और लण्यार्थ के परस्परान्वय के हष्टान्त से अम्मपक्ष के शम्याप और लक्ष्य प्रर्य में परस्परान्वयबोष का आपावन महीं किया जा सकता, क्योंकि अपवस्तिवावय में एखकारनियन्त्रित व्यरसिका असाव।बह व्युत्पत्ति इस प्रकार -एचपदप्रयोक्यलक्षमाधनिष्ठविषयतामिपिसशपयार्थविषयता एबपक्षप्रयोज्य:भवति । इसका मूलभूत कार्यकारणभाव इस प्रकार है कि 'एक्सवप्रयोज्यलक्या मिष्ठविषपतानिरूपितशम्यामिष्ठाविषमसासम्बन्धेन शमशेषं प्रति 'एषपमिष्टशक्तिमाममन्योपस्थितिः विशे यतासम्बधेन कारणम् । प्रस: घटपन की नील में लभमा मानकर 'नीलः घटः न शुबलः' इस पोम के सात्पर्य से 'घटो न शुक्लः' इस प्रयोग को आपत्ति नहीं हो सकती। 'गुणवदेव द्रव्यम्' इत्यादौ द्रव्यादावेच गुणवदाद्यन्यत्त्वस्य व्यवच्छेदः, न तु द्रव्यवादी गुण्यदायन्यचित्तस्य । चैव एव पचति' इत्यादी लक्षणयोपस्थिते तारशक दी चैत्रान्यत्वादिव्यवच्छेदः । 'आत्मनैव ज्ञायते' इत्यादौ शानादावामान्यसमवेतत्वस्य व्यवच्छेदः । 'शीत एव सझे जलयुत्तिः' इत्पत्र जलवची शीतान्यस्पर्शतादात्म्यस्य, जलशतिस्पर्श वा शीतान्यवस्य । 'जातिमत्वेव सत्ता, इत्यादी 'समवति' इत्यध्याहारेण समपाये जातिमइन्यत्तित्व विशेषस्य व्यवच्छेदः । इह भनने मैत्रेणैव पत्यते तेमनम् हन्यत्र मैत्रायस्पिस्तादृशांतव्यवच्छेदो लक्षणमा योध्यते, ततद्भवनहतितेमनादौ मैत्रान्वपश्यमाणलादेन्यवच्छेतुमशक्पत्वात् । एवं "आत्मनेर तेमनं ज्ञायते, इयते, पच्यते, भुज्यते' इत्यादावामान्यज्ञेयत्वादेसिद्धत्वेन व्यवच्छेदाऽसंभवादियमेव रीतिरनुसतव्या | [विविध प्रयोगों में एचकार के व्यवच्छेय का निर्देश ] (१) 'गुणध येव वृष्यम्' इत्यादि वाक्यों में एक्कार से प्रत्यादि में गुणवदावि के भैर का यमस्येच होता है, किन्तु अध्यात्वादि में गुणववादि से भिन्न वृत्तिस्य का ध्यवच्छेव नहीं होता, पयोंकि पंसा व्यवच्छेव मामने पर प्रस्वरूप पवायरवेश में भवन होगा और वह अन्वप भी उपपन्न नहीं हो सकता, क्योंकि द्रव्यपर से व्यत्व म्वरूपतः उपस्थित होता है। प्रतः उसमें गुणवद्धिन पत्तिस्य के अमाव का योष नहीं हो सकता, क्योंकि पदार्थ के अन्वय बोध में अन्वयितावच्छेवकरूप से अन्नयी की उपस्थिति कारण होती है।() 'ध एव पचति' इत्यादि वायम में ति' प्रत्यय की धर्मों में लक्षणा करने से उपस्थित पाककवि में एवकार से बवान्यायावि का सबच्छे होता है। (३) मात्मनंब जायते' रिपारि वाक्य में एवकार से ज्ञानादि में आरमान्य-समवेतत्व का यवमय होता है। (४) 'शोत एव स्पर्णी नलवृत्तिः' इस वाक्य में अलवृत्ति में मातायस्पर्श के तावारम्य का व्यवसाय होता है अथवा मलवत्तिस्पर्श में पौतान्यस्व का व्यषलेव होता है। (५) 'जातिमत्येव सत्ता' इत्यादि बामों में समति' पर का अय्याहार कर के समवायरूप धास्वयं में जातिमभिन्न के सिस्थविशेष थानी स्वरूपसम्बन्धावछिन्नतित्व का व्यवसव होता है। (१) 'ह भवने मवेणव पक्ष्यते तेमनम' इस बारम में मंत्रान्य में एकअपनवृत्ति तेमनकर्मक मावि मैत्रहुंक पाकानुकूल कृति का अभाव
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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