________________
स्यक सोका एवं हिन्दी बियेचन ]
૧૨૯
अग्य में समाहा । 'पृषिमागे ग म
अनाररिस होती यदि अन्मयोग का प्रातिस्विक प्रति सम्वावस्यव्याप्यरूप से भान न मान कर तलवन्मसम्बरवाषरूप मान माना जाता। क्योंकि उस विपति में गन्ध में प्रवामिन का उक्त सम्बन्धावनिवृत्तिस्य रुप सम्बन्ध रहने से पृथ्वी अन्यसम्मम्धाभाष बाधित होता। किन्तु सम्बन्धत्वव्याप्यरूप से प्रभ्ययोग का भाम मानने पर उक्त स्थल में पृथ्बोप्रायमोग का समवायसम्बन्धावच्छिन्नवृतिस्वरुप सम्बन्घत्वग्यामधर्म से भान मानने के कारण उक्त प्रयोग की अनुपपत्ति नहीं हो सकती।
पृथिव्यामेव गन्धः स पाक्य से गन्ध में पृथ्वीपुत्तित्व पातो पृथ्वीसमवेतत्व और तदन्यवृत्तित्व का व्यवच्छेष अर्थात पृथ्वोभिन्नसमवेतस्वाभाव, वोनों मयों को प्रतीति नियम से होती है 1 अत एवं प्रकाश में एवीन्यनिपितसमवेतरखामावस अर्थ अधाधित होने पर मौपच्चीसमवेतश्वरूप अर्थ साथ होने से प्रथिव्यामेवाकाशमस प्रयोग को आपत्ति नहीं होती।
इसी प्रकार मंत्रायवेवं धनम्' इस स्थल में धन में बनान्यनिरुपित स्वत्व के प्यमयेद की प्रतीति होती है न कि क्षेत्रनिरुपितस्त्राव के अयोगम्यपच्छेव को प्रतीलि होती है। क्योंकि यषि विसीयप्रतीति मानी जायगी सोय मैत्र उभयस्वामिकथन में भी 'पत्रस्यवेवं यनम्' इस प्रयोग की वापत्ति होगी। क्योंकि उस धन में भी चंअनिरूपित स्वत्व के अयोग का अभाव है। किन्तु प्रथम प्रोति मानने में कोई रोष नहीं है, क्योंकि उक्त धन में चान्यनिरूपित स्वस्व के मी रहने से उसका मनाप बाधित है। इसी प्रकार 'शीतस्य स्पर्शस्य जरूसितम्' इस स्थल में जलवृत्सिव में शोता. यस्पर्श के सम्बन्ध का, मंत्री जलमेव भुयते' इस स्थल में चत्र में जलायभक्षणकर्तृत्व का; एवं 'चत्रणवायं दृश्यते' इस स्थल में बनान्यवृतिदर्शनविषयःव का व्यवच्छेद घोधिप्त होता है। अन्तिम वाक्प ले वर्शन में मैन्यत्तिस्य के व्यवहद का पोय नहीं माना जा सकता, क्योंकि वेसा मानने पर चत्र-वर्शन में क्षेत्रान्यत्तित्व का अजाम होने से चयमैत्र उभय से दरषमानपदार्थ में भी 'चैत्रेणैव प्रय दृश्यते' इस प्रयोग की आपत्ति होगा।
सर्वत्र अन्यसंवद्धता ही एपकार से व्यवच्छेद्य ] इस प्रकार साधारणरीति से अन्यसम्बन्धत्य ही सर्वत्र एवकार में व्यवदेश होला है। अन्य समवेतत्यादि भी अन्यसम्बाउन्यरूप होने से हो स्मखमय होता है। किन्तु ज्ञातव्य है कि माथ सम्माद्धत्व कहीं साक्षास सम्बय से अन्यमानत्वज्य होता है और कहीं परम्परा सम्बन्ध से अन्यसम्पा. स्वरूप होता है। 'शंख: परि एवं इस स्थल में शंज में पारान्य सादारभ्यरूप पारात्यमोग का ध्यबस्व प्रतीत होता है अथवा पाण्डुरास्यत्व का ही व्यवस्टेष प्रतीत होता है। इस प्रकार मन्यत्व
और प्यवच्छेव इन वो अर्थ में 'एष' पत्र की शक्ति है। 'शंग्ण पार एवं' इस स्थल में शक्ति द्वारा 'एच' पत्र से शंख में पारान्यस्य के अभाव की प्रताप्ति हाती है और पार्ष एम धनुर्धरः' इत्यादि स्थल में एव' पद को अन्यसम्बन्ध में सक्षणा द्वारा पायिहासन्ध के अययस छेद की प्रसोति होती है।
[व्ययकछेदमात्र में शक्ति माने तो लाघव ] अषया लाघव से एक्कार की शक्ति व्यवस्दमात्र में ही है 'पार्य एवं धनुधरः' यही समभिव्याशाराविश्वल में पार्थान्यत्वापि की उपस्थिति होने से पायसम्बन्ध में एव पद की लक्षणा हो माती है, एवं 'शखः पावर एव' में पाण्डुरसम्बत्व में लक्षणा हो जाती है भोर ध्यय येव प्रभाव में