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________________ [ शास्त्रवासात सो०२१ 'मानमर्ष महास्येव' इस पल में प्रयोग ज्यानको अस्यातायोगस्यमधेर नही कहा धाता। क्योंकि ऐसे स्थलों में प्रयोगव्यवधेश की प्रतीति अभ्ययितावश्येवमानस्वायच्छेवेत ही मामी जाती नेहो प्रतीति ने करना पड़ गयेषगान रजत की ग्रहण करता हो है' एवं 'नरो वैवानचीते एबममा वेवाव्ययन करता ही है" इसप्रकार का प्रयोग मह। होता। पयोगम्मवमव का अन्वय कहाँ अन्धमितसमठेवकाबनेम हो और कहां अपितावावकसामानाधिकरण्येन हो इसका नियामक क्रियाविशेषमोय अर्थात क्रियाविशेषयोधक क्रियापदों का समभिण्याहार (सहोसधारणही। मत एव सरोजमीनं भवस्ये' इस स्थल में 'भवति' क्रियासमभिष्यात एवकार से सरोजस्वसामामाणिकरण्येन मीलोत्पत्ति के अयोग के पवाव का बोध होता है और 'जानम गमात्येव यहाँ एबकार से ज्ञानस्वावलोवेन ही अर्थप्राइकर के अयोगव्यपोव को प्रतोति होती है। इसप्रकार मग्यमतानुसार एक्कार के दो हो अर्थ सिद्ध होते है (१) आयोगायबच्छेव और (२) दूसरा अभ्योगण्यवस्व [ एवकार का एकमात्र अन्ययोगव्यवच्छेद ही अर्थ ] कित पौर अधिक परामर्ग करेंतो उचित यह लगता है कि एकमात्र अन्ययोगपरस्येव हा सर्वत्र एवकार का अर्थ है अन्यथा उक्त अयों में एप पर की होक्ति की कल्पमा में गौरव है। दूसरी बात यह है कि बिनोषणसमत एमकारका अयोगव्यवच्छेष अर्थ मानने पर खः पाण्डर एक इस मल में पाधारपव से पाण्डव की मत्पशा विषया उपस्थिति न होने से पापाराव के प्रयोगपवाछेद को प्रतीति भी गायोतिपादय का संसली आकाइमाभास्थ होने से पापुरएवरूप परार्थताबमालेखक का एवकाराचं घटक अयोग में प्रन्वय सामव है। अतः इस स्थल में पास में पाराम्यपोगग्यवच्छेदकानी होष माना अषितामोल सरोज भवस्येव' इसस्थल में भी सरोण में नीलादि से प्रग्य के योग यवरखेव को ही प्रतीत होती है। अति उस वाक्य से 'कालाग्ययोगव्यवस्ववत्सरोजं मपति सप्रकारका बोध होतास बोध में एवकार का कियासंगतत्व क्या है ? प्रन्सवितावावेदकलामामाधिकरप्पेन स्वाबोधन में क्रियापसापेक्षस्वरूप है । बर्यो कि असे अयोगव्यवच के स्थविशेष में प्रचयितावस्यकलामामाविकरपयेन भग्वय रियाविशेक के पोगरूपनियामक से नियन्त्रित होता है उसीप्रकार शायपोगव्या मछेव का भी स्थलविशेष में अन्वयिता. वझवसामानाधिकरण्येत पाषय माविशेष योगमा विषामक में सिविल हो सकता है। 'शाममयं गहाल्पव' इस स्थल में सिह प्रत्यय धमोपरक है। अत एव यहाँ मी अचंपाहक के मन्मयोगण्मयसव का ही अन्वय अपितावच्छेवकावयेवेन होता है। [अन्य योग का प्रतिभास भित्र भित्र रूप से ] अध्ययोग, तात्पर्यविशेष अथवा समभिव्याहार विशेष से प्रातिस्विरूप से अर्थात कहीं शतविशेषाश्ययोग के सम्म माप्य किसी रूपविशेष से, तो कहीं तत्तदिगोषणाययोम के साहारूप से और कहीं सिरतपदोपस्थाप्य तत्तवधाययोग के सारशल्प से, भासित होता है। इसलिये गायक पृथ्वीभिन्न में स्वामय संयुक्त समवायसम्हरव से रहने के कारण पृरुषोभिन्न काम्बाश्रयसंपुरुसमवायसम्बयामिन्नत्तिस्वकप सम्बन गन्म में रहता है तो भी 'पविम्यामेव गम्मः' इस प्रयोग की अनुपपास नहीं हो सकती, मयोंकि यह पथिोष मणवा समिध्याहारविशेष से 'पृथ्वीमिनसमवेत रूप आपयोग के ही भ्यबाछेव का अम्बष्ट है और वह गम्भ में बाधित है क्योंकि गता पृथ्वी से
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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