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________________ स्या का सीका एवं हिन्यो विवेचन ] १२७ शक्ति; समभिन्याहारादिबलोपस्थिते च पार्थान्यन्यादी लक्षणा, लक्ष्य-शक्पयोरचेवकागर्थयोरेवकारनियन्त्रितन्युत्पत्तिविशेषान परस्परमन्वयः। [नव्यमत-अत्यन्ताऽयोगायवच्छेद एक्कार का अर्थ नहीं ] नव्यने यायिकों का कहना है कि अत्यन्ताऽयोगव्यवच्छेष एवकार का अर्थ नहीं हो सकता पर्योकि अत्यम्तायोग को याद सम्मातीयसमस्सनिष्ठ अयोगरूप माना जायगा तो उसका व्यवस्व उसकी सिद्धि और प्रतिशि दोनों में ग्याहत होगा । बसे, 'मोल सरोज भवत्येव' इस स्थल में सरोजातीय समय में नीलोत्पति का प्रयोग नहीं है क्योंकि सरोग विशेष में नीलोत्पति का योग होता है, प्रतः उसके प्रसिद्ध होने से उसका मावश्व शक्य नहीं हो सकता क्योंकि प्रसिद्धप्रतियोगिका भाव नहीं होता । तथा, 'परमाणवः भवस्येव' इस स्थल में उत्पत्ति का प्रयोग परमाणु सजासीप समस्त में सिद्ध है। अत एव उसका भी व्यवच्छेव करमा शपय नहीं है। क्योंकि किसी भो परमाणु में उत्पत्तियोगरुप 'उत्पत्ति अयोग का व्यवस्व सम्भव नहीं है। यदि यहा जाय कि-"तरजातीय समस्तत्तिस्वका अयोग के साथ सम्बन्ध न कर भयोगव्यवच्छेत्र के साथ संबम्प जोडकर यह मामा नायगा कि क्रियासङ्गत एमकार से सजातीय समस्त में क्रिया के अयोगपषध का बोध होता है प्रतः उक्त बोष महीं हो सकता"-तो पल भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर 'सरोज मोल भवत्येव' इस स्थल में बाघ हो जायगा क्योंकि सोजत्रातीमसमान में नीळकर्मक समायोm at wweी । क्योंकि समस्त सरोमान्तर्गत नीलान्यसरोक में मीलफत क उत्पत्ति का अयोग होने से उसका म्यवस्व समस्त सरोज में असम्भव है। नम्पमत में क्रियागत एवकार का अर्थ ] पतः क्रियाप्तङ्गत एवकार से क्रिया के प्रयोग में कियायोधकपरसमभिव्यादतपब से यजातिविशिष्ट का बोध होता है सजातीयावच्छिन्नस्य अर्थात् तम्जातिध्यापकत्व का बोध मानमा युक्तिसंगत हो सकता है पोंकि भील सरोजं भवायेवास स्थल में नीलकतंक उत्पति का अयोग सरोजाख का श्यापक नहीं है, अत एवं उसमें सरोजस्व के ग्यापकरण के अभाव का बोध हो सकता है। इसप्रकार मियाप्तंगत एवकार का अर्थ होगा व्यापकत्व अयोग और व्यवच्छेव । इन में, ज्यापकत्व में सरोज पदार्य का अम्बष होगा निक्तित्वसम्बन्ध से; और व्यापकत्व का अन्वय होगा स्वरूप सम्बन्ध से अभाव में और अभाव का स्वरूपप्तम्बाय से अवय होगा मीलं सरोज भवमेव' इस स्थल में उत्पत्ति मिलापताश्रयत्वाभावरूप प्रयोग में, उस अभाव की प्रतियोगिता है आषधस्वरूपसम्बन्ध में और प्रवच्छेदकता है उत्पत्ति में, जो उक्त स्थल में सूधातु का अर्थ है । इसप्रकार उस उक्त वाक्य से होनेवाले शायनीष का प्राकार होगा 'मोसामिन सरोज सरोजण्यापकत्यामाववअभावनिहपितप्रतियोगितानिरूपितापरवकतावत्पतितिपिताश्रयतामा किन्तु इसप्रकार नीलोत्पत्ति के प्रयोग में सरोजव्यापकस्वाभाव का बोध मानने पर उसका पर्यवसान सरोजविरोध में नीलोत्पति के अयोगव्यवाद में होता है। पयोंकि किसी सरोज में नीलोत्पति के प्रयोग का अभाव होने पर ही मीलोस्पति के प्रयोग में सरोजव्यापकत्व का अभाव हो सकता है। फलतः क्रिपासनास एवकार का भी अयोगध्यवच्छेन हो अर्थ सिद्ध होता है। और उसका अन्य सरोमजासीय एकवेश में सरोजविणेष में होने से ही उसे अत्यन्तायोगव्यवच्छेब कहा जाता है।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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