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________________ स्थाकटीका एवं हिम्मो विवेवा ] रूपावि का समवाय रूपवान् में सामरस्पेन रहता है । इसी प्रकार सामान्य को पति में भी उक्त विकपसा ही मान्य हो सकती है। उसके अभाव में उस में त्तिस्वसामान्याभाव की प्रापत्ति घुष्परिहार्य है। अथ व्याप्यवृत्य-ऽव्याप्यन्यो सित्वेऽनवच्छिन्नत्यमवच्छिन्नत्वं चेति फात्स्न्यैकदेशविमोषो नापरः । तत्र च सामान्यस्यापि यायवत्तित्वादेवाप्यनवछिन्नतित्वरूप कासन्यन तित्वमुपगम्यन एव । म वं यावद्वयक्तिभेदापत्तिः, ज्ञानेऽनेकविषयन्ववज्जाताबनेकृत्तित्वस्या प्यत्रिरोधादिनि वेत् । न, 'एकत्वमेकात्रव पर्याप्तम् , न द्वयोः' इति घियकत्व-द्वित्वयोरेकत्रीभयोश्च पतिवद् घटत्वमा परामम' इति धिया घटस्त्रस्यापि प्रत्येक पर्याप्तिस्वीकार एकत्व. द्विवान्छिन्सपयाप्तिकोरेकत्य-द्विन्धयोरिय तत्तव्यक्तित्वावनिछ अपर्यानिकत्वेन तभेदस्याप्यावश्यकत्वात । विच, उत्पद्यमानेन पिण्डेन सह संबध्यमानं सामान्यं फिपन्यत आगत्य संबध्यते, उत तत्पिण्डेन महोत्पादाद , आइरेस्वित् पिण्डोत्पत्तेः प्रागेव तद्देशायस्थानाव ? | नाद्यः, अमूर्तस्य पूर्वाधारवृत्तिस्वभावाऽपरित्यागनान्यत्राऽऽगमनाऽसंभवात् । न द्वितीयः, अनुत्पणस्वभावत्वाभ्युपगमान् । दीपः, सानो घरमा शिशा समापि इत्यनगतीव्यपदेशप्रसङ्गात् । तदुक्तम्-- [प्र. वा. ३-१५२१५४] नाऽऽयाति न च तपासारित पशाच चाशवत् । जहानि पूर्व नाधारमहो ! व्यसनसंततिः ।। १॥" तथा-... 'अप्रासौं यतने भारम्नेन संबध्यते न च । ताशं न च व्याप्नोति किमयतद् महासुनम् ॥ १॥" इति । [प्रत्येक घट में घरत्य की पर्याप्ति के बन्न से भेदापनि ] यदि यह कहा जाम कि-'कास्न वर्सन का अर्थ है याप्यस्ति पदार्थ को अवभिन्न सिता और एक देश से बर्तन का अर्थ है अध्याप्यवत्ति की अनमिछम्मत्तिता । इससे अतिरिक्त कारय एकदेश का कोई अर्थ नहीं है । अतः सामान्य के व्याप्यसि होने से उसमें अनजिपत्तिस्वरूप कारयनसित्व माना जा सकता है। ऐसा मानने पर यह भी बांका नहीं हो सकतो कि सामान्य का इस प्रकार बत्तंन मानने पर आथयभेद से सामान्य में मेव को प्रापत्ति होगी। क्योंकि जैसे एकप्तान में अनेक विषपकार भरति विषयतासम्बग्य से अनेकत्तिस्व होता है उसी प्रकार कासि में भी अनेकवत्तिस्व मानने में कोई विरोध नहीं हो सकता"-तो यह कथन भी ठीक नहीं है क्योंकि एकरवं एकत्रेय परितं मयोः = एकस्य एक व्यक्ति में ही पर्माप्त होता है वो में नहीं है। इसी प्रकार 'द्वित्वं तयोरेव पर्याप्त न रखेकत्र विश्व दो में ही पर्याप्त होता है एकमात्र में महों' इस प्रतीति से जैसे एक में एकत्व की और यो में विस्व को पर्याप्त सिद्ध होती है, उसी प्रकार 'घटत्वं प्रत्र पर्याप्त घटस्व इस घटष्यक्ति में पर्याप्त है इस बुद्धि से घटत्व की भी प्रत्येक घट में पर्याप्ति माननी होगी। प्रतः बंसे पर्याप्ति के एकरव-द्विस्वरूप
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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