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[ शास्त्रवास० स्व० ७ श्लो० ३०
स्थित्याद्यपेक्षयैव गति- स्थितिमत्त्वात्, अन्यथाऽभिप्रेतदेशप्राप्ति-स्थितिवदनभिप्रेतदेशप्राप्तिस्थित्योरपि प्रसङ्गात्, तथास्वभावसत्त्वे कारणाभावस्याप्रयोजकत्वात्, कारणसमाजेन तथास्वभावस्यैषाक्षेपात् अन्यथाऽतिप्रसङ्गात् । दहनादेरपि दाहादिपरिण (मयोग्यापेक्षयैव दहनादित्वात्, अन्यथा चातथायात्, अदहनस्याप्युदकादिद्रव्यस्य स्वयमदद्दनत्वेऽपि पृथिव्याद्यदद्दन व्यावृत्ततया कथञ्चिदतथात्वात् समयाविरोधेन भजनाप्रवृत्तेः, जीवाऽजीवयोरपि कुम्भाद्यपेक्षया जीवापेक्षचा चान्तथात्वात्, अन्यथा सर्वस्य सर्वात्मकतापतेः । तदिदमाह
[ सम्मति. ३ / २६-३०-३१ ]
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*परिणयं गई चैव के णिअमेण दत्रिअमिच्छेति । तंपि अ उड्ढग अंतहा गई अण्णहा अगई ॥ १ ॥ गुणणिव्यत्तिअण्णा एवं दहणादओ विदच्या जं तु जहा पडिसिद्धं दध्वमदव्यं तहा होड़ ॥ २ ॥ कुम्भो पण जीवदविअं जीवो वि ण होड़ कुंभदविअं ति । तुम्हा दो वि अदवि अण्णोष्ण विसेसिआ हुंति ॥ ३ ॥ इति ।
[ गति-स्थिति- दहन - वचन - जीव - अजीवादि में अनेकान्त दृष्टि ]
इसी प्रकार 'गच्छति तिष्ठति' इत्यादि 'बहनाव् दहन: पचनात् पचनः' इत्यादि, एवं 'जीवद्रष्मजीवद्रव्यं' इत्यादि में भी उक्तरीति से अन्यय और व्यतिरेक व्याप्ति की भावना करनी चाहिए। अर्थात् गति और स्थिति के होने पर गतिमत्ता और स्थितिमत्ता का अन्वय छोर गति-स्थिति के अभाव में गतिमत्ता और स्थितिमत्ता का व्यतिरेक आदि की अवगति करनी चाहिए, क्योंकि गति और स्थिति आदि में परिणत द्रव्य में भी ऊदिगवच्छिन्नगति और भूतलावच्छिन स्थिति आदि की अपेक्षा से ही द्रव्य ऊर्ध्वगतिमान और भूतलस्थितिमान होता है। यदि ऐसा न माना जाय तो और सर्वदि अपेक्षा से गति आदि माना जाय तो गति स्थिति आदि में परिणत द्रव्य की जैसे इष्टदेश में प्राप्ति और स्थिति होती है उसी प्रकार अनिष्ट देश में, जहां उस द्रव्य को न प्राप्त होना है और न स्थित होना है वहां भी उसकी प्राप्ति और स्थिति की आपत्ति होगी। यह नहीं कहा जा सकता कि"गति स्थिति आदि में परिणत द्रव्य की तत्तद्विगपेक्षा से नहीं किन्तु स्वभाव से ही इष्ट देश में प्राप्ति और स्थिति होती है ।" क्योंकि स्वभाव का आश्रय लेने पर कारण का अभाव कार्यामाय का प्रयोजक न हो सकेगा। कारणसमुदाय से हो स्वभाव विशेष की उपपत्ति मानती होगी, अन्यथा कारणसमुदाय के अभाव में भी उक्त स्वभाव के सम्भव होने से कारसमुदाय के न रहने पर भी कार्य जन्म का अतिप्रसङ्ग होगा ।
* गतिपरिणतं गत्येव केचिदू नियमेन द्रव्यमिच्छन्ति । तदपि चोर्ध्वगतिकं तथागते रन्यथागतेः ॥ गुण निर्वतित संज्ञा एवं दहनादयोऽपि दृष्टव्याः । यत्तु यथा प्रतिषिद्धं द्रव्यमद्रव्यं तथा भवति । कुम्भो न जीवद्रव्यं जीवोऽपि न भवति कुम्भद्रव्यमिति । तस्माद् द्वावप्यद्रव्यमन्योन्यविशेषितो भवतः ॥