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पा. का ठीका एवं हिन्दी विवेषम ]
इदं च वस्तुनरौलक्षण्यलक्षणं विना दुर्धटम् , घटनाशफाले मुकुटोत्पादानभ्युपगमे तदर्थिनः शोकानुपपत्तेः [ ? प्रमोदानुपपत्तः ।. प्रमादिगिदनिमिदनापार युगमागे हे सुवर्णायिनो माध्यस्थ्यानुपपत्तः । न च सुवर्णसामान्यार्थिनी यत्किमित्सुवर्णनाशेऽपि शोकाभावात् । अपूर्वेच्छाभावेन च प्रमोदाभाधादर्थादुपपद्यने माध्यस्थ्यमिति पाच्यम् , तथापि घटनाशानन्तरमेव मुकुटोत्पादाभ्युपगमेऽन्तरा यावत्सुवर्णाभावे शोकस्यैव प्रसङ्गात् , दोपधिशेपात तदननुभवेन शोकाभायोऽपि विशेषदर्शिनी दुर्घटः ! न च मुवर्ण सामान्याभावोऽपि सुवर्ण सामान्येच्छाविघातकज्ञानविषय एकः परस्य युज्यते, अनुमवेन नदॆक्यान्युपगमे व सत्तद्वि बर्तानुगतासुवर्णसामान्यस्याप्यनुभवसिद्धस्य प्रत्यारल्यातुमशक्यत्वात , गाणीकृतविशेषापास्तहिपयकेच्छाया एव तद्विषयकामिहेतुत्वादिति ।
कारिका में 'मन' गाद में एकवचन विभक्ति का प्रयोग 'जनाव' सामान्य की अपेक्षा किया गया है, व्यक्ति की अपेक्षा नहीं। क्योंकि एक व्यक्ति को एककाल में विविध इच्छा नहीं हो सकती। अर्शत एकव्यक्ति एक ही वस्तु को एककाल में तीन रूपों में पाने की इच्छा नहीं कर सकता। यदि कालनेव से एकट्यक्ति में इसणात्रय की उपसि को जायगी तो इसप्रकार के छात्रप से एककाल में उत्पाव-व्यय-धौवय एतस्त्रिप्तयात्मक एकवस्तु की सिस नहीं हो सकती। क्योंकि एकवस्तु यदि एककाल में उत्पाद यय-प्रोग्य एतस्तियात्मक न हो, सो भी कालमेव से इछात्रय को उपपत्ति हो सकती है अतः 'मन' पक्ष को सामान्य को अपेक्षा से एकवचनान्त मानने पर कारिका का यह अर्थ निष्पन्न होता है कि
[ घट-कट-सुवर्ण के सात से राय की उपपप्ति ] ___ एक मूलद्रध्य से सौवर्णमाट, सौवर्णमुकुट और केरल सुवर्ण को एककाल में अभिलाषा करने पाले सीन मनुष्यों को, एककाल में घर का नाश, मुकुट की उपपत्ति और मुवर्ण निर्धात होने पर उन्हें कम से शोक, हर्ष और गोकहमियविरहरूप माध्यस्थ्य को प्राप्ति होती है। क्योंकि मूलद्रव्य एक हो काल में घटरूप में नष्ट होता है और मुकट रूप में उत्पन्न होता है एवं सुवर्णद्रव्यरूप में अवस्थिल रहता है। अतः पटाथों पो घटरूप से मूलद्रध्य का नाश होने से दोक होता है. मुकुटायों को उसी मूलप्रम्य की मुकुटरूप में उत्पति होने से हा होता है और सुवर्णार्थी को शोक और हर्ष फुष्ट नहीं होता क्योंकि उसे घट रूप अधया गुफुटलाप में मूलपध्य की कामना नहीं है किन्तु मुवर्णम्प में कामना है. और मूलद्रव्य पट एवं मुयाट दोनों शा में गथया घट और मुशट दोनों के अभाव की अशा में सुवर्णरूप से सुलभ है।
एकमूलप्रथ्य के सम्मन्ध में विभिन्न मनुष्यों को ये तीन अनुभूति, यस्तु को एककाल में उस लसण्य से लक्षित न मानने पर असम्भव है । क्योंकि यदि मूलद्रव्य घट रूप से अपने नाममाल में मुकुट रूप से उत्पन्न नहीं होगा-मुकुटरूप में उस को प्राप्ति के घारक मनुष्य को हर्ष नहीं होगा। यदि एवं घटमुकुट आदि घिमात्र विवर्त-आकार से अतिरिक्त सुवर्णपत्रव्य का अस्तित्व न माना मायेगा तो घट के नाश और मुकुट के अनुत्पाव व शा में सुधार्थी में शोक हम विरह रूप माध्यस्थ्य उपपन्न न होगा। क्योंकि घट के मष्ट हुने से घटरूप में सुवर्ण रहा नहीं, मुकुट की उत्पत्ति न होने से मुकुटरूप में भी