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[भास्थयात तहलो०२
नहीं रहा और उन प्राकारों से प्रतिरिफा सुवर्णतष्प का अस्तित्व नहीं है, अतः उस दशा में मुवी प्राप्ति की प्रामा समाप्त हो जाने से सुपरी को शोकप्राप्ति अनिवार्य होगी।
[सुवर्ण को घटादि विवर्ष से अतिरिक्त क्यों माना जाय !] ___ यदि यह कहा जाप कि-'जो सामान्यरुप से सुधर्म का इसाक है उसको किसी एक प्राकार से सुवर्ण नाश होने पर भी प्रन्याकार में सुवर्ण की प्राप्ति सम्भव होने से शोकनों होगा और मुकुटाकार सुषर्ण को जस्पत्ति होने पर भी उसे हर्ष नहीं होगा क्योंकि मुकटादि प्रपूचं आकाररूप में उसे मृष्ण की आकांक्षा नहीं है। अतः घट-मुकुटादि से अतिरिक्त सुवर्णद्रव्य की सत्ता न मानने पर भी सुवर्णार्थी में शोकहर्षशून्यतारूप माध्यस्थ्य होने में कोई बाधा नहीं हो सकती-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि जित सुवर्णमय से पहले से हो चट मना हा है उस सुवर्णव्य से घटनामा के बाब ही मुकुट को उत्पत्ति हो सकती है, प्रप्तः घटनाश और मुकुत्पाद के मध्यकाल पाबक्ष सुवर्ण का प्रभाव होने के कारण सुवर्णप्राप्ति की आशा न होने से सुधार्थी को शोक होना अनिवार्य है। यदि यह कहा जाप कि "शोक के उवय में यद्यपि यावर सुवर्ण के अभाव का अनुभव कारण है, किन्तु मुवायों को घटनमा और मुफुटोस्पाय के मध्य अत्यन्त लघुकाल में मुवर्ण को तीवसर आकांक्षारूप दोष से पायसुषणं के प्रभाष का अनुभव नहीं होता । अत एव उस में शोक का प्रभाय सम्भव होता है।" फिन्तु यह पानी नहीं है कि मेरे से गुम मत नहीं होता उसी प्रकार उसे मुवर्ण के अस्तित्व का भी अनुमय नहीं होला क्योंकि उसे घट-मुकटावि आकारों से अतिरित सुवर्ण के अभाव का निश्चय रहता है। अत: यावलमुवर्णाभाव के मनुभष के न होने मात्र से शोकाभाव माहीं हो सकता । मयोंकि शोकामाव के लिये किसी रूप में सुवर्ण के अस्तित्व का शान भी अपेक्षित है । जो तसबरकारों से अतिरिक्त सुवर्णमध्य के अस्तित्व में पास्थाहीन व्यक्ति को घटनाका और मुफुटौत्पाद के मध्यकालीन अवधि में सम्भव नहीं है।
[सुवर्णन्यसामान्यानुभव से शोकाभाव की अनुपसि | पवि यह कहा जाय कि "घट मुकुटावि तत्तबाकारों से अतिरिक्त सुवर्णनग्य के अस्तित्वा अनुभव सुधर्ण सामाग्मार्थों को घटनाका और मुफुटोस्पाय के मध्यकाल में भले न हो किन्तु घट मुकुटाकि विभिन्न आकारों में अमुगप्त सुमणसामान्य-सुवर्णस्वाति के अस्तित्व का प्रमुभव हो सकता है। और वह उस सुवर्णमामान्य का हो रहा होता है । प्रातः उस शोकलीत होने में कोई बाधा नहीं है क्योकि तुषण सामान्य का निश्चय भी मुवर्ण सामान्य को पछा का विषर्याप्तहिषिधया (यघातक है।"तो पह ठोक नहीं है क्योंकि ऐसे मुषणामान्य की सिद्धि में कोई युक्ति नहीं है और यदि घरमुताचि मिन मुवर्णाकारों में मुरणसामान्य सुवगत्वजाति के अनुभव के पल उसका प्रभ्युपगग किया जायगा तो घर मुकुटादि विभिन्न आकारों में एक सुवर्णद्रव्यसामान को अनुत्ति के मनुभव के अनुरोध स तसवाकारों से मतिरिक्त एकहव्यात्मक मुवर्णसामान्य का भी प्रत्याख्यान मही हो सकता । घट मुन्टावि तविदोषाकार को गौण कर लुषतम्यसामान्य का प्रधानरूप से अवगाहन करमे पालो इच्छा को सुवर्णसामान्याथों की प्रवृत्ति का हेनुनी माना जा सकता है। अतः इस प्रवृत्ति के अनुरोध में च्यात्मक सुवर्णसामान्य के अतिरिक्त जातिगात्मक मुवर्णसामाश्यकरुपना अयुक्त है।
न च शोकादिक निहेतुकमिनि वक्तुं युक्तम , नित्य सवस्याअसत्यस्य वा प्रसाव । न च युष्माफ्सपि तन्त्र घटमुकुटोमयार्थिना युगपच्छोकप्रमादोषाद दनि वाच्यम् , एकत्रो