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स्मा.कोका एवं शिवो निबेचम 1
भयार्थिप्रयमययोगाव । एकत्र देशे वत्प्रवृत्ती चोभयस्य कश्चित्प्रत्येकातिरेका दोषाभाषात् , येन रूपेण यत्रेच्छा तेन रूपेण तमाशो-पाद-स्थितिञानानामेव शोक-प्रमोद-माध्यस्थ्यहेतुत्वाद । अनेकान्तस्याप्यनेकान्तातुविद्रकान्तगर्भत्वात् । तदुक्तम्
'भयणावि हु भयव्या जह भयणा भयह सचदन्याई । एवं भयणा नियमो बि होई समयाविराहणमा ।।" [ सम्मति प्र. १२५ ) इति ।
अत एव रयणप्पहा सिय सासया, सिय असासया" इत्यनेकान्तवाक्ये तदनुविद्ध वन्ययाए
जिया , पागामा: सिरहामा " मायन व्यवस्थित्तम् । एतेन "उत्पाद-स्थिति-भङ्गानामेकय समायतः प्रीतिमध्यस्थताशोकाः स्युन स्युरिति दुर्घटम्" इत्यभिप्रायाऽपरिज्ञानविम्भित मण्डनमिश्रकृतखण्डनमपास्तम् 1 न हि पट-मुकुटरूपापेक्षानुत्पादनाशावेव सुवर्णरूपापेक्षावपि, बेनाऽव्यवस्था स्यादिनि । न पानेका न्तवादे तत्सम्वेऽपि तदभावज्ञानात् प्रवृत्त्यव्यवस्थया प्रीत्यायव्यवस्थापि, वेन रूपेणेच्छा तेन रूपेण तदभावज्ञानस्यैव प्रवृत्तिविघातकत्यात । एतेनापि--
"कान्तः सर्वभावाना यदि सर्वविधा गतः ।
अप्रति-निवृत्तीदं प्राप्तं सर्वत्र ही जगत् ॥ [ ] इति सर्वस्वहानिजनित इव महान मण्डनमिश्रगृहशोको निवारितः ! 1 परिहरिष्यते च पूर्वपचोइकित्तोऽनिश्चयप्रसङ्गः स्वयमेव प्रन्यकृता, इति तयाधिक विवेचयिध्यते ॥ २ ॥
[घरमुकुट दोनों के चाहक को शोक हर्ष युगल की आपत्ति अशक्य ]
यदि यह कहा जाप कि-'घटनाशादि से विभिन्न मनुष्यों को जो शोकादि होता है वह निहंतुक है अत एव उसके हेतुरूप में एक काल में उत्पादावित्रितयास्मक वस्तु की सिद्धि नहीं हो सकती - तो यह वीक नहीं है, क्योंकि शोकादि को निहतक मानने पर, या तो नित्यपदार्थों के समान उसके सवा सत्य का प्रसंग होगा या तो पाषषाणाधि के समान उसके सादिक असश्व का प्रसङ्ग होगा । यदि यह शंका की जाय कि-- एक काल में परतुको उत्पादध्ययनोग्य एतस्त्रितयारमक मानने के पक्ष में भी घट-मुकुट उभम की कामना करने वाले व्यक्तिको घटनाश और मुकुटोस्पात होने पर एक साथ ही विषय मे शोक और हर्ष दोनों की उत्पनि का प्रसङ्ग होगा। क्योंकि जिस द्रव्य को वह घटरूप में चाहता था, घर का नाश हो जाने पर वह द्रव्य उसे घटरूप में प्राप्त नहीं हो सकता, इसलिये सभ्य के विषय में शोक, और उसो Fध्य को यह मुकुटरूप में प्राप्त करना चाहता था अतः मुफुटरूप में उसकी उत्पत्ति होने से उस रूप में उसकी प्राप्ति सुलभ होने के कारण उसी मूलद्रव्य के
भजनाभि पलु भक्तप। यथा भजना भरति सर्वत्रन्याणि ।
यं भजना तमोऽपि भवति समयाविषनया ॥१॥ १, रत्नप्रभा स्याच्याश्वतो, स्यादशाश्वती। २. श्यार्थतया स्याच्छाश्वती, पर्यावार्थतया स्याशाश्वती।