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________________ [ शास्त्रवास्ति लो. २ विषय में हर्ष की उत्पत्ति, अनिवार्य है। तो यह होकनहीं है, क्योंकि घट और मुकुट नभषापों एक ही मनुष्य को एक दूग्य में प्रवृत्ति नहीं होली । [रूपभेद से प्रवृत्ति होने पर भी शोक-हर्षे की अनापनि ] यवि यह कहा जाय कि-"घटमुकुटोभयार्थी की एकरूप से एक अन्य में प्रवृत्ति न होने पर भी रूप मेद यानी घटाकार-मुकुटाकार से प्रवृत्ति हो सकती है तो इसका उत्तर यह है कि ऐसी स्थिति में उक्त दोष प्रसक्त नहीं हो सकता क्योंकि इस स्थिति में प्रवृत्ति का सिषममूत प्रष्य रूपमेव से एक दूसरे से भिन्न हो जाता है। अतः यह प्रति सर्वथा एकविषयक न रह कर भिन्नविषयक हो जाती है । अतः इसके प्रेमामेव से विफल और सफल होने पर होमेबाला शोक और हर्ष भिन्नविषयक हो जाता है। [अनेकान्त भी अनेकान्त से उपश्लिष्ट है। आशय यह है कि जिस रूप से मनुष्य को जिस वस्तु की इच्छा होती है उस रूप से उसके नाश का माम शोक का, उत्पाद का मान हर्ष का और स्थिति का नाम माध्यस्थ्य का हेतु होता है, क्योंकि जो वस्तु उत्पाब ग्यय और धौष्य रूप होमे से अनेकान्तरस्मक है वह वस्तु एक एक रूप से एक ही समय केवल माशावि एक एकात्मक ही है। जैसे घटरूप से नावा और मटरूप से उत्पार और मुवर्णरूप से श्रीव्ययुक्त प्राय जिस सण घरस्य रूप से नष्ट होता है उस समय वह घटस्वरूप से उत्पाव अथवा स्थिति से मुक्त नहीं होता। इस प्रकार अनेकान्त भी पनेकारत से अनुविद्य एकान्त से टिप्त है। अतः एक सुवर्णद्रव्य में षटमुकुट को पा से होने वाली प्रवासि घटत्वरूप से उसका मामा मोर मुकुटश्वकप से उसका उत्पाद होने पर घटस्वरूप से उसमें प्रवृत्ति को निष्फलता और मुकूटस्वरूप से प्रवृत्ति की सफलता होने से वह वस्तु विभिन्नरूप से शोमय और विभिन्नरूप से हर्षप्रा होती है-ऐसा मानने में कोई विरोध नहीं है। अनेकास की एकान्तनतता में सम्मतिग्रन्थ तीसरे माह की २९ वी गाथा भी साक्षी है जिसका अर्थ यह है कि-'मजला - प्रवेकान्त की भो भजना मानी मनेकान्तरूपता होता है। इसलिये जसे अनेकान्त सभी द्रव्यों का अनेकान्तात्मना प्राहक होता है उसी प्रकार अपना भी अनेकान्तरूप से पाक होता है। इसलिये अनेकान्स में एकान्त भी होता है और यह सिद्धान्त के भविष्स है क्योंकि अमेकान्त का घटक एकान्त 'मी प्रमेकान्त से अनुविद्य होता है।' इसीलिये, भनेका के एकान्तगनित होने से ही "रत्नप्रभा पृष्यी कचिद शाश्वत और कश्चिद् अशाश्वत है" महो पृथ्वी की अनेकान्तरुपता का बोधक इस आगम बाय के साथ 'व्याथिकनय से पृथ्वो शाश्वास ही है जोर पर्यायाथिक नय से भशाश्वत हो है' यह पृप्त्री की एकान्तास्मकता का बोधक भगवान के मायम का वचन मङ्गत होता है। [एक साथ एक मनुष्य को शोकादि आपनि का निवारण] मण्डनमिश्र ने इस सिवान्त के विरोध में जो यह कहा है कि-एक वस्तु में उत्पाद-स्थिति पौर नाश का एककाल में अस्तित्व मानने पर एक हो काल में उस वस्तु की उत्पति, स्थिति और माश होने से एक हो ममुख्य को एक ही समय उत्पद्यमान आकांक्षितरूप से उस वस्तु से हम और अमुषसमान सामान्यरूप से उस वस्तु के सम्बन्ध में माध्यस्थ्य और नयदप से उस वस्तु के समान्य
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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