SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 42
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ मा०का टीका एवं हिनी विवेचन में शोक की प्रापत्ति होगी। वस्तु को एक काल में उत्पादादित्रितयारमक मानने पर एक व्यक्ति को एक वस्तु के सम्बन्ध में प्रोति आधिका न होना दुर्घट है ।"-किन्तु यह मामन इसलिये मूल्यहीन है कि इस कथन का मूल है वस्तु को उत्पारावित्रितपात्मक मानने के उक्त अभिप्राप का अमान । प्राशय यह है कि घट और मुकुट में जो आकार की उत्पाद और विनाश अपेक्षा से होता है वह सुवर्णरूप की भी अपेक्षा से नहीं होता। यति घट मुकुट रूप से उत्पत्ति-पिनाश के साथ सुवर्णरूप से भी उत्पाद और विनाश होता, तब वह उक्त दोष हो सकता था, किन्तु ऐसा नहीं है। इस पक्ष में यदि यह संका को आप कि-'अनेकान्तवाद में बस्त्र का पस्तित्व होमे पर भी उसके श्वभाष का शान हो सकता है इसलिये प्रथसि की अव्यवस्था होगी क्योंकि नत्तद्वस्तुविषयक प्रवृत्ति के प्रति तत्तस्तु के प्रभाव का मान प्रतिबन्धक होता है। फलतः तसतरतुत्रों की प्राप्ति व प्राप्ति से प्रोति मौर दुखादि की उपपत्ति न हो सकेगो'- तो यह ठीक नौ है क्योंकि जिस रूप से जिस धन की इच्छा होती है उस रूप से उस वस्तु क अभाव का नाम ही प्रवृति का विरोधी होता है। पस्तु को उत्पादादिषितयात्मक मानने पर मण्डनमिश्र को घर बैठे नो सर्वस्वहानि से होगेपालो चिन्ता जंसी चिन्ता हुई कि यदि सम्पूर्ण पापों को सब प्रकार से मनेकान्तरूप मामा जायगा तो समस्त विश्व प्रसिनिवति शून्य होकर मतकरूप याती असत्कल्प हो जायगा । जैसे, इस मत में जो वस्तु रजतरूप है वह कश्विन अरजतरूप भी है, इसलिये रमतात्मकता के मान से उस वस्तु के भरमसात्मक होने से उस वस्तु में होने वाली नित्ति का विरोध करेगा और जसको अरजतात्मकता के मान से उसमें रजतात्मकता के ज्ञान से होने वाली प्रति का विशेष होने से उस वस्तु के विख्य में मनुष्य को न तो प्रथमि होगो, म नियत्ति होगी। यही स्थिति जगत को सर्ववस्तु के सम्बन्ध में होगी।"-ऐप्ती चित्ता भो उक्त उत्तर से ममाप्त हो जाती है। क्योंकि जिस रूप से जिस वस्तु की इच्छा होती है उस रूपसे उस वस्तु के प्रभाव का ज्ञान हो प्रत्ति का विरोधी होता है 1 इस सिमान्त में पूर्वपक्षोत्रों द्वारा वस्तु के मनिश्चय की भी आपसि भी आता है किन्तु ग्रन्थकार इसका स्वयं परिहार करमे असः सी अवतार पर इस सम्बन्ध में मोर विवे बन किया जायगा |॥२॥ तोसरी कारिका में वस्तु को एफकाल में घिलयात्मकला की उपपत्ति के लिये एक अन्य जवाहरण प्रशित किया गया है एतदपपसे रेत्र स्थलान्तरमाहमूलम्—पयोनसी न दध्याति न पयोऽति दधिनतः। ___अगोरसवतो ना नस्मात प्रयामकम् ॥ ३ ॥ पयोवतः श्रीरभोजनम्रता, न दध्यत्ति-न दधि भुयते । यदि च दधनः पयस एकान्ताऽभेदः स्यात् तदा तस्य दधि अनाऽपि न बतभंगः स्यात् । तथा, वधिवत: दधिमीजनमतः, पयः दुग्धम् अति । परसो दध्न एकान्ताऽभेदे च तद असतो म दधिमजनवतभक्तः स्यात् 1 ततो दधिपपसोः कशिदूभेदः । तथा अगोरसबमा पाल()नालादिभोजनम्रता, उभे-दृग्वदधिनी नाचि इति गोरसभावेन द्वयोरभेदः, अन्यथा कृतगोरसप्रत्याख्यानस्य दुग्धायकैफभोजनेऽपि न चतभनः स्यादिति । तस्मात द्रव्यपर्यायोभयात्मकत्वात् त्रया
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy