________________
[ गास्त्रात ७ एलो.
स्मक-उत्पाद-व्यय-नौव्याश्यम्भूतं वस्तु । तथा च समयपरमार्थवेदिना-[सम्मतौ-गाथा १२]
दवं पअवविउ दवविउत्ता य पजवा णस्थि । उपाय-ट्टिइ-मजा हदि ! दवियलकावणं एवं ॥ १ ॥ इनि ।
[दही, दुग्ध और गोरस के दृष्टान्त से अनेकान्तसिद्धि जो व्यक्ति पयोक्ती होता है अर्थात तुग्धमात्र के भोजन का नियम ले लेता है वह यहीं नहीं खाता । यदि वहीं और दूध में एकान्त अमेव होता तो वहीं लाने पर भी उसके प्रत का भङ्ग नहीं होना चाहिये, फिन्तु होता है । इसी प्रकार जो व्यक्ति वषिवती होता है केवल वहीं खाने का नियम ले लेता है यह दूध नहीं लेता। यदि दूध में वहीं का एकान्त पमेद हो तो पूष लेने से बाहीं के नत का भन नहीं होना चाहिये किन्तु होता है। अतः वहों और बुध में कश्चिभेद सिद्ध होता है। और उसी प्रकार जो व्यक्ति अगोरसवत होता है-गोरस रहित वस्तु के ही भोजन का नियम लेता है वह पूष और वहीं दोनों ही वस्तु को नहीं लेता। इसलिये इन दोनों में गोरमकप से अभेद सिद्ध होता है। यति बूथ और वहीं में गोरसरूप से अमेव न होगा तो निमने गोरस के मा क नियम लिया है. वृष अथवा वहीं किसी एक का भोजन करने पर भी उसके व्रत का मन नहीं होगा, किन्तु हो जाता है प्रतः पोरसरूप से दोनों में अभेव आवश्यक है। निष्का यह है कि षस्तु ध्यपर्याय उभयात्मक होती है। उसमें इण्यांश स्थिर होता है और पर्याय उत्पत्ति-विनाशशाली होते हैं। प्रतिक्षण किसी पर्याय का विनाश और किसी पर्याय का जवय होता है। प्रस: बस्तु प्रतिक्षण विनश्यत् पर्याय के रूप में नष्ट होती है, उत्पद्यमान पर्याय के रूप में उत्पन्न होती है और द्रव्य के रूप में स्थिर रहती है। इस प्रकार वस्तु उत्पाव-विनाश और स्थैर्य से कभी पृथग्भूत नहीं होती। मंसा कि सिद्धान्त रहस्पवेवी श्री लिसेनमूरि के सम्मतिप्रन्थ कांड १ गाथा-१२ में कहा गया है कि "वष्य कभी भी पर्यायों से मुक्त नहीं होता और पर्माय भी कमी व्रव्य से मुक्त नहीं होते। अत! 'उत्पाव-स्थिति और विनाश' यह व्रव्य मानी वस्तु का सुनिश्चित लक्षण है।"
मनु दुग्ध-दजारकान्लेन भेद एव इति तस्योत्पाद-व्ययौं युक्ती, ध्रौव्य तु गोरसत्यसामान्यस्येव न तु गोरसचेति रेत १ न, 'मृद्ध मेर गारसं दुग्धभावेन नष्टम् , दधिमावेन चोपनम्' इत्येकस्यैव कदोत्पाद-व्ययाधारवलक्षणधाव्यभागितया प्रत्यभिज्ञायमानस्य पगर्नु । मशक्यवान् ।
[प्रत्यभिन्ना से गोरस के प्य की मिदि] यघि यहांका को माय-कि दूध और वहीं में एकान्त भेद हो है. अतः उनका उत्पाद और पिनाश युक्तिलगता है किन्तु उनका श्रीध्य भुक्तिसंगत नहीं है, क्योंकि उन दोनों में अनुगत कोई गोरसात्मक अतिरिक्त मुख्य नहीं है, जिस म्प से उन्हें ध्र माना जा सके । अव रहने वाला तो उन कोमों में गोरसत्व नामक सामान्य रहता है, जो उन छोनों से पत्यन्तभित है और शुष है।"-किन्तु पाटीक नहीं है क्योंकि 'जो गोरस दूध के रूप में नाट होता है वही गोरस वहीं के रूप में उत्पन्न
होता है इस प्रकार एकही गोरत में एक ही काल में एक रूप से उत्पत्ति दूसरे रूप से नाश और __ म्यं पापविन पवियुक्ताश्च पर्यंबा त सन्ति । उत्पाद-स्थिति-भङ्गा कृन्त ! ध्यलक्षणमेतत् ।।