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________________ २६ हथा० क० ठोका एवं हिन्दी विवेचन ] उभयानुगतरूप से प्रौष्य की प्रत्यभिता होती है । यतः विभिन्नरूपों से उत्पन्न होने वाले पर्यायों में प्रगत एक सामान्य स्थिर द्रव्य का निराकरण नहीं किया जा सकता । नच विशेषेभ्योऽत्यन्तव्यतिरिक्तं धुरं सामान्यमस्ति सदव्यवस्थितेः । तथाहि" नित्यमेकमनेकसमवेतं सामान्यम्" इति तलचणमाचक्षते परे । अत्र 'एकम्' इति स्वरूपाभिधानं न तु लक्षणम् - इत्येके । 'नित्यमेकम्' इत्येके लक्षणम्, लक्षणान्तरं वा समवायित्वे भरनेकसमवेतलमिति यन्ये । 'अनेकत्वमनेकाधारकत्वम्, तश्चाभावसमवाययोरपि इत्यत उक्तस्- 'एकम् ' - असद्दायम्, अभाव- समवाययोश्च प्रतियोगिसंबन्धिनीमहायो' इत्यपरे । तत्र नित्यत्वं तवत् श्यामन्य रक्ताद्युपाधीनामिव दधित्व - दुग्धत्वादीनां साक्षादेवोत्पाद - विनाशानुभवादसिद्धम् | 'दुग्ध-दनोरेबोत्पादविनाशानुभवोऽस्ति न दधित्वदुग्धत्वयोरिति चेत् ? तर्हि श्यामरस्तयोरेव तदनुभवः, न तु श्यामत्य- नक्तत्वयोः इति तयोरषि नित्यत्वं किं न स्यात् ? 1 'श्यामाद्युत्पादावनुभवो भ्रान्तः, तत्कारणमात्रात्' इति तु न युक्तम्, दण्डादिकं विनापि खण्डनटादिवत् तदुपादादिसंभवात् । 'सहेतुकत्वाच्छामरूपादेर्न नित्यत्वम्' इत्यत्रापि विवादकलह एवं | 'भावकार्यस्य नाशनियमाद् न तत्र नित्यत्वमिति चेत् १ अनु तमेतदपि कार्यत्वस्यत्रेत्थमसिद्धेः । किञ्च, एवं लावाद् भावस्य नाशनियमाज्जातेर पिं नित्यत्वच तिरस्तु । 'अनित्यत्वे सति प्रतिव्यक्ति भिन्नं सत् सामान्य सामान्परूपता जयादि वि चेत् ? उपाधिरप्यनुगतव्यवहारनियामिकां वां किं न जह्यात् १ | 'उपाधावपि परम्परया जातिरेवानुगमिका, प्रमेयस्यादर्शप परम्परासंबन्धेन प्रमात्यादिरूपत्वादिति चेन ? न घटे घटस्था देखि प्रमेयारपि साक्षादेवानुभवात् । [ अतिरिक्त नित्य सामान्यवाद की परीक्षा का प्रारम्भ ] - यह जो कहा गया कि सामान्य अपने विभित्रायों से प्रमन्त भित्र और शुभ होता है वह सत्य नहीं है क्योंकि इस प्रकार का सामान्य असिद्ध है। जैसे देखिये वस्तु को स्थिति लक्ष और प्रमाण से होती है किन्तु सामान्य का जो लक्षण बताया गया है यह परीक्षा करने पर निष हो पाता । उदाहरणार्थ नियमे करा मवेतं सामान्यम् इस लक्षण को परीक्षा की जा सकती है। हि इस लक्षण में आये हुए 'एक' पद के सम्बन्ध में कतिपय विद्वानों का कहना है वह लक्षण घटक नहीं है किन्तु सामान्य वस्तुतः आभयमेव होने पर भी एक होता है अतः वस्तु के इस स्वस्थ का अभिधायक है। अन्य विद्वानों का कहना है कि 'एक' पद इस बात की सूचना देता है कि नियमनेकसमये यह सामान्य का एक लक्षण हुआ इसी प्रकार उसका दूसरा लक्षण भरे है जैसे 'असमतापित्वे सति समवेत्यम्' इस लक्षण में असमवायिश्वे सति यह अंश घट । विमन्य तथ्यों में और एकसंख्या में अतिस्याप्तिवारण के लिए है। 'अनेक' पद विशेष में अतिव्याप्तिवारण करने के लिये है। न कहकर समवेत का कथन अत्यन्ताभाव में अतिव्याप्तिवारण करने के लिये है।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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