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________________ [ शास्त्रवासिलो २ अस्तित्व नहीं होता है, किन्तु जो सदा पर्याम होते हैं अर्थात वस्तु में प्रो मन पर्म होते है जैसे पटाव्य में सत्ता-व्यस्व-पृथ्वीत्वावि, ये घराध्य के स्व पर्याय कह जाते है इन धौ से घटाय का अस्तित्व होता है। वस्तु साधारण-असाधारणरूप अर्थात सामान्यविशेषात्मक होती है। उस के इन सामाम्मभिशेषात्मक कयों में गुग-प्रधानभाव को विवक्षा से वस्तु सद् आदि सामान्यशन से प्रार घटादि विशेषराव से पाच्य होती है। कृपसत्र मय के अनुसार तास अर्थपर्यायों से भी वस्तु का अस्तित्व नहीं होता क्योंकि वह नय परस्परच्यावत स्वलक्षणवस्तु का प्राहक होता है। अत एव वत्तमान समय में विद्यमान स्वसहशपर्याय से ही वस्तु का अस्तित्व होता है। अतीत और माबो स्वसहशपर्यायों से वस्तु का कथविद् अस्तित्व और कनिन नास्तित्व दोनों होता है क्योंकि वस्तु अपनी गक्ति अपने प्रध्योरारूप से वसंमानकाल में, भूतकाल में और भावीकाल में भी अभिन्न होती है। किन्तु ततकाल में विद्यमान तसतव्यक्तिरूप से भिन्न होती है। विद्यमान भी स्वसटश अनेकविध एक गुण-विगुणकृष्णत्वादि वमों से वस्तु को भरना अर्थात् अनेकान्तरूपता होती है। इस प्रकार जगत् स्वत: अनुवृति और परतः प्याति प्रावि अनेक शक्तिओं से युक्त उत्पाद व्यय-प्रोष्यरूप लभण त्रय से आलिष्ट भनेकान्तरूप है। __ इस सन्दर्भ में यह प्रातस्य है कि सत्त्व ध्यस्थाथि त्रिकालवतो वस्तु के सामान्यषों को ज्यामपर्याय मौर वस्तु के वर्तमानकासमात्रयसिस्प को अर्थपर्याय कहने का क्या प्राशम है ? विचार से यह आशय शात होता है कि वस्तु का जो रूप प्रति-निति में उपयोगी होता हैमर्थात् जिरारूप से यस्तु में अष्टसाधमसा और अनिष्टसाधनतामान से भाषी वस्तु में प्रवृत्ति मोर भावी वस्तु से निपत्ति होती है वह रूप व्यंजन-पर्याय कहा जाता है क्योंकि उस रूप से वस्तु में इष्टानिष्ट अर्षक्रिया को योग्यता को शाप्ति होती है। किन्तु जिस रूप से घस्नु अक्रिया की उपधायक होती है, वह वस्तु का सामान्यरूपम होकर उस का बसमानकालमात्रवत्तिविशेषरूप होता है, ऐसे रूप को अर्थपर्याय कहा जाता है । इसप्रकार अर्थपर्याय शय का 'बस्तु में दार्थ कयोफ्यायकता का प्रयोजक पर्याय' यह अप किया जा सकता है ।।१।। दूसरी कारिका में यस्तु के उत्पाद व्यय और प्रीव्य एततुधिष्यरूप होने में पुक्ति बतायी गई है। उत्पादादित्रयात्मकन्द उपपत्तियाहमूलम्-घटमौन्तिसुवर्णार्थी नाशोत्पावस्थितिष्ययम्।। शोकप्रमोरमाध्यस्थ्य जनो याति साहतुकम् ॥ ९॥ * अयमधिकृतो जनः, सामान्यापेक्षयेकवचनम् , पकस्यैकदा त्रिविधेनाऽभावान् । काल. भेदेनेच्छात्रयस्य च यात्मकफनिमित्तयाऽप्रयोजकत्वादिति द्रष्टव्यम् । घट-मीलि-सुवर्णार्थी सन प्रत्येक सावर्णघट-मुकुटमुवान्यभिलपन् एकदा तम्माशोत्पादस्थितिषु सतीषु शोकप्रमोदमाध्यस्थ्यं सहेतुकं याति । तदेव हि घटार्थिनी घटनाशात् शोकः, मुकटार्थिनस्तु तदुत्पादान प्रमोदः, सुवर्णाधिनस्तु पूर्वनाशा पूर्वारपादाभावाद न शोको न वा प्रमोदा, किन्तु माध्यमभ्यमिति दृश्यते । * सूगरी और तीसरी कारिका आप्तमीमांसा ग्रन्थ में ५९-६० काम से विद्यमान है।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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