________________
स्वा.कटीका पूर्व शिन्यो विवेचन ]
[वस्तु को अन्य पदार्थों के धर्मों से सम्बद्ध मानने पर शंका-समाधान ]
वस्तु को अपने उत्पादादि के समान अन्य पदाथों के उत्पादादि स्वरूप मागने पर यह का होती है कि "जैसे घट में अपने उत्पावाविको प्रमा होती है उसी प्रकार प्रम्य पदार्थों के अत्याचादि की भी प्रमा होनी चाहिये।" किन्तु मह वांका इसलिये निर्मूल हो जाती है कि याति द्वारा घर में नासा के नवादावि
। बर: तुषारा इसकी प्रमा का पापादन इसलिये नहीं हो सकता कि घर में अन्य पदार्थों के उत्पावावि को अनुति का अभाव है। ऐसो घांका-वस्तु को स्व-पर सभी धर्मों से साक्षात् माथवा परम्परा से सम्बन मानने पर स्व-पर का विभाग उम्टिन हो आयगा क्योंकि जय सभी धर्म सबके होंगे तो उन में कोई विभाजकम हो सकेगा"-भी निरापार है क्योंकि स्वयत्तिअनुषसि के प्रतियोगिस्वरूप से स्त्रका यानी स्वतधर्म का, तथा स्वस्तिग्यावृत्ति के प्रतियोगित्यरूप से पर का यानी पर धर्मों का निर्वधन हो सकता है। सब धर्मों का सब वस्तुओं में सम्बन्ध होता है यह मानने से 'पर धर्म में स्वसम्बन्धिता का मौर प में परमर्मसम्बन्धिता के व्यवहार का भी प्रापादन करना उचित नहीं है क्योंकि जिन्हें वस्तु को अनन्तधर्मात्मकता चिदित है उन्हें उक्त स्यबहार प्रघाधित रूप से सम्पन्न होता ही है। प्रतः उक्त आपावन इष्ट होने से बोषरूप नहीं हो सकता । जैसा कि विशेषावश्यक भाष्य को ४८५ गाथा में कहा गया है कि
"जिन धर्मों के अज्ञात होने पर जो पदार्थ ज्ञात नहीं होता और जिनके ज्ञात होने पर ज्ञात होता है वे उस में ध्यावृत होने पर भी उसके धमे क्यों नहीं होंगे । जब कि ऐसे रूपाविस्वरूपधर्म उस घटादि पदार्थ के धर्म होते हैं।" कहने का प्राशय यह है कि वासु का मान कलिषय यमों की अनुवत्ति से और अनेक धर्मों की व्यावृत्ति से ही यथावत सम्पन्न होता है। जो धर्म स्तु में मनुक्त शात होते हैं में उरा के साक्षात धर्म होते हैं और जो धर्म वस्तु में ध्यास गृहीत होते हैं वे स्वप्रतियोगिकष्यावृत्तिरूप परम्परा सम्बन्ध से उस वस्तु को धर्म होते हैं। ऐसे सभी धर्मों के ज्ञात होने पर ही वस्तु पूर्णसमा गृहीत होती है और यदि उन विविष षौ में कोई धर्म पृहीत नहीं होता तो वस्तु का साकल्येन पान नहीं होता।
तत्र च परपाय विसदृशैः पटत्वादिभिनास्ति पाद्रव्यम् , सदृशंस्तु सच-द्रव्यत्वपृथिवीत्यादिभित्र्यअनपायरस्त्येत्र, साभारणा साधारणस्य सामान्यविशेषरूपस्य वस्तुनी गुण. प्रधानभावेन सदादिशब्दवाच्यत्यान । अर्बपर्यायैस्तु ऋजुनवाभिमनः सदशैरपि नास्ति, अन्योन्य रुपावृतस्त्रलक्षणध्राइकत्याच तस्य । स्वपर्णरैरपि प्रत्युत्पन्नरतत्समयेऽस्त्येव, विगत-भविष्यनिस्तु कथञ्चिदस्ति, कश्चित् नास्ति, तत्काले तच्छकत्या तस्यैकल्यान , नद्रपव्यक्त्या च भिन्नत्यादिति । प्रत्युत्पन्नरप्येकगुणकृष्णत्वादिभिरकगर्भजनैति । एवं स्वतः परतो वानुतिपाच्याघनेकशक्तियुक्तोत्पादादिलवण्यलक्षणमनकान्तात्म जगद् विभारनीयम् ॥१॥
[म्ब-पर पर्यायां से वस्तु का अस्तित्व-नास्तित्व ] न धर्मों को सम्बन्ध में यह बातव्य है कि जो जिस पदार्थ के विसदशपर्याय होते हैं जिन्हें परपर्याय कहे जाते हैं ऐसे धर्मो से पदार्थ का अस्तित्व नहीं होता-जैसे पटत्वादि रूप से घटवष्य का