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उपचय के अनानम्लपरमाणुओं का त्याग और ग्रहण करता है, इस प्रकार उन परमाणुओं के समसंख्या संयोग विभागों की प्रामा में उत्पत्ति होती है। यह उत्पति भी बहुसंख्य है- अनन्त है। इसी प्रकार काम की के समय काय में विभिन्न सर्वज्ञों के अगणित ज्ञानविषयश्व की उत्पत्ति होती है । इस प्रकार विभिन्नरूप से उत्पशिक्षों के आनन्त्य का वर्णन कहाँ तक किया जाय एक गाय में उत्पत्ति न को इस प्रकार समझा जा सकता है कि जब किसी एक थ्य को उत्पत्ति होती है उसी समय त्रैलोक्य में विद्यमान समस्त उदय के साथ उस उत्पन्नथ्य के साक्षात् तथा परम्परा से अगष्य सों की उत्पत्ति होती है क्योंकि आकाश-धर्म और अधर्म मावि प्रथ्यों का समस्तपव्यापी सोता है।
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ईदृशप्रतिपत्त्यभावश्चास्मदाद्यध्यक्षस्य तथा तथोल्लेखेन निरवशेषधर्मात्मकवस्वग्राहकत्वान्, त्रैलोक्यव्यावृत्तस्वलक्षणान्यथानुपपत्त्याऽनुमीयते तु निधिमेव तथात्वम् इतरतियोगित्वेनेतथिग्भूतानां व्यातीन स्वतित्वेन स्वात्पृथग्भूतत्वात् । न चैवं घटे स्त्रोत्पादादिपदन्योत्पादादिकमपि प्रमीयेतेति वाच्यम्, व्यवृत्तिद्वारेष्टत्वात् अनुच्या तु सदभावादेव | अत एष' 'स्व-परविभागोऽप्येवमुच्छित इति निरस्तम्, स्वनृत्यनुवृत्तिप्रतियोगित्वेन स्त्रस्य स्ववृत्तिव्यावृत्ति प्रतियोगित्वेन च परत्वस्थ व्यवस्थितेः । अत एव परत्रापि स्त्रसंबन्धितामात्रच्यबहारो व्युत्पन्नानामवाध एव उक्तं च मान्यकृता - [ वि० आ० मा० गाथा ४८५ ]
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"जे
अणासु तओ ण णज्जए, पाज्ज अ पाए ।
किं ते या तस्स घम्सा घडा रुवाइधम्म व्य ॥ १ ॥" इति ।
[ आनंत द्रव्य संबंध का भान क्यों नहीं होता ? ]
इस मान्यता के सम्बन्ध में यदि यह शंका को जाय कि यदि उत्पन्न होने वाले एक द्रव्य का sutra समस्त दष्यों के साथ साक्षात् और परम्परा से सम्बन्ध होता है तो उप में उन को प्रतिपति क्यों नहीं होती ?'- तो इसका उसर यह है कि असवंत मनुष्यों का प्रत्यक्ष तसव्यरूप से एक द्रव्यनिष्ठ सभी धर्मो का उल्लेखपूर्वक प्रशेषषमस्मिक वस्तु के ग्रहण में स्वभावतः असमर्थ होता है। किन्तु उत्पन्नत्रव्य का जो त्रैलोषपसम्बन्धा स्वरूप है उसको अन्यथा उपपत्ति न होने से उसमें लोक्ता का निर्वाध अनुमान होता है, क्योंकि व्यावृति शतरप्रतियोगिकस्वरूप से इतरानुवृत्ति से पृथक होती है और वह स्ववृत्ति होने से स्व से अनुभूत अभिन्न होती है। इसलिये किसी भी वस्तु का स्वस्वरूप होवयवस समस्त वस्तुओं के सम्बन्ध के दिन नहीं उपपन्न हो सकता। स्व में अनुवृत्त वस्तुओं का स्व के साथ साक्षात् सम्बन्ध होता है और स्व में पननुवृत्त argओं का परम्परा से अर्थात् व्यावृत्ति द्वारा सम्बन्ध होता है। इस प्रकार वस्तु के त्रैलोक्यध्यावृत स्वलक्षणस्तुस्वरूप की अन्यथानुपपति से उसमें बैलोक्यवर्ती समस्त वस्तुओं के सम्बन्ध से अनुमान में कोई बाधा नहीं हो सकती ।
ज्ञानज्ञायते ज्ञायते ज्ञाते । कथं से न तस्य धर्माः ? घटस्य रूपादिव || १३|