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स्पा०रु० टीका एवं दिविवेचन ]
कस्य कायस्थोत्पचिः, सर्दैवानन्तानन्तपरमाणुपचितमनोवर्गणा परिणतिलभ्यमनउत्पादोऽपि तदैष चचचनस्यापि कायाकृष्टान्तरवर्गणोत्पचिप्रतिलब्धवनिरुत्पादः, तदैव च काया-ऽऽत्मनोरन्योन्यानुप्रवेशाद् विमीकृतासंख्यातात्मप्रदेशे कायक्रियोत्पत्तिः सदैव च रूपादीनामपि प्रतिक्षणोत्पनिश्वराणामुत्पत्तिः तदैव च मिथ्यात्वाऽविरति प्रमाद कपायादिपरिणति समुत्पादितकर्मषन्धनिमित्ताग। भिगतिविशेषाणामप्युत्पत्तिः, तदैव चोत्सृज्यमानोपादीयमानानन्तानन्तपरभावापादिवत प्रमाण संयोग-विभागानामुपत्तिः तच च तत्तज्ज्ञानविषयत्वादीनामुत्पत्तिः किं बहुना देकद्रव्यस्योत्पत्तिः, तदैव त्रैलोक्यान्तर्गत समस्तद्रयैः सह साक्षात् पारम्पर्येण वा संबन्धानामुत्पत्तिः सर्वद्रव्यव्यातिव्यवस्थिताकाश-धर्माऽवर्मादिद्रव्यसंयन्धात् ।
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[ एकक्षण में एक द्रव्य में अनंत पर्याय कैसे ]
यदि यह शंका को जाय कि "एक अन्य जो अनन्तकाल में विभिपर्यायों से उत्पन्न होता है उसमें अनन्तकाल में तो अनस्तपर्यायात्मकता उपपत्र हो सकती है किन्तु एक शी ऋण में उसमें अम पर्यायात्मकता कैसे होगी ?" तो इस शंका का उत्तर यह है कि एकक्षण में भी अनन्तश्यायअनवनाथ और अनन्तस्थिति पर्याय होते है, क्योंकि जिस समय देह की उत्पत्ति होती है उसी समय त की, aur की. देहक्रिया की बेहगतरूपादि को और मागामी गतिविशेषों को, परमाणुओं के संयोगविभाग की तया तज्ज्ञानविषयता की राहुपति त्रैलोक्य में विद्यमान समस्त द्रश्यों के साथ उसके साक्षात् अथवा परम्परा से कई सम्बन्धों की उत्पत्ति होती है। इनमें काय की उत्पति में अनेको बार अन्तर्भाव है जेसे देखिये, अनन्तामरूपरमाणु पुष्गों का आहारभाव में परिणमन रूप उरपति, उसके उपयोग से रस भिावि की उत्पत्ति, उसके परिणाम से शिर अलि आदि अङ्गोपाङ्ग भावों की परिणति से स्थूल सूक्ष्म सूक्ष्मतरादि विभिन्न भयययों की उत्पति होने से 'समस्त अश्वययममध्ट' रूप कायात्मक अवयवी की उत्पत्ति होती है ।
इसी प्रकार मन की उपसि में भी अनेक उत्पत्ति का समावेश है, जैसे- मनोषगंग के अनन्तानन्य परमाणुत्रों की परिणति अर्थात् अनन्तानन्त परमाणुओं में एक मन के रूप में परिणाम नारूप पर्यायों को उत्पत्ति इसी प्रकार वचन की उत्पत्ति भी अनन्त उत्पत्ति से अन्तनिविष्ट है, जैसे कामयोग सेट किये गये भाषाणा रूप आन्तरवर्गेणा के अनन्त परमाणुओं की परिणमनाला पर्यायों के रूप में अनन्त उत्पत्ति इस प्रकार कम्यक्रिया की उत्पत्ति में भी उत्पत्तिों का संनिवेश है क्योंकि काया और आत्मा के विलक्षण रूप अयोग्यानुमधेश के द्वारा आत्मा के असं प्रदेशों काम में ब.. म्यूनाधिवय का उदय होने से कार्यक्रिया की
रूप से
संयोग से सम्पन्न अयोग्य ताबा विषमभावकरण से कार्यायोस्पा होती है।
एवं प्रतिक्षण उस विमाशील रूपादि की उत्पत्ति उत्पद्यमान के भेष से होती है। इसी प्रकार काम को उत्पत्ति के समय मिष्यात्व अविरति प्रसाद और कषाय से जो कर्मबन्ध पहले उत्पन्न हो चुके हैं और जो मानभव में उदय योग्य होते हैं तन्निमितक आगामी गतिविशेषों का अर्थात उन कर्मों की क्रममाथि फलोश्मुखता का उदय होता है। यह उदधरूप उत्पत्ति गतिविशेषों के से अनेक होती है। इसी प्रकार काया की उत्पत्ति के समय कायानुप्रविष्ट प्रारमा, काया के