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________________ स्मा• क० टोका एवं हिन्दी विवेचन ] होगा तो यह सरवपत्र भी होना । तथा यह अनुमान भी संगत हो सकता है कि- "आकाश सावयव है, क्योंकि वह हिमालय और विन्ध्याचल पर्वतों से देशभेद से अवरद्ध है। जो वेशभेद से अवरुद्ध होता है वह सावयव होता है जैसे उन्हीं अवयवों द्वारा बेषामेव से अवरुद्ध भूखण्ड ।" ११ किञ्च, आकाशस्य सावयवत्वाभावे 'इह पक्षी' इति धीरनुपपन्ना स्यात् । न च 'हद्द' हत्या लोकमण्डलमेव प्रतीयत इति पापम्, तदालोकव्यक्तेरन्यत्र गतावपि तद्दर्शनात् । न चालोकान्तरं तद्विषयः, 'तत्रैव' इति प्रत्यभिज्ञानात् । न चालकत्वेनैव सदाधारत्वाद् न नदनुपपतिरिति वाच्यम्, आलोकाभावेऽपि 'तंत्र' इति प्रत्यभिज्ञानात् । न च मृर्वद्रव्याभावाधारत्वेन तदुपपतिः, आलोक सति तदभावात् । न निविडमृद्रव्याभावस्तदाप्यस्त्येवेति वाच्यम्, तस्यान्यत्रापि लवेनान्यत्र गतेःपि पक्षिणि प्रत्यभिज्ञापतेः देशविशेषमवच्द्रक प्रतीत्यैव 'इह पक्षी' इति प्रयोगाच्च । न चाकाशदेशम्यादीन्द्रियत्वेनावच्छेदकप्रतीत्यनुपपतिः, अबुद्धी] ताशस्यापि क्षयोपशमविशेषेण विशेष्याकृष्टतया भावात् । [ 'पक्षी' इस वृद्धि की सायवन्त्र पक्ष में ही उपपत्ति ] इसके साथ ही यह भी तथ्य है कि यदि प्रकाश सावयव न होगा तो आकाश में 'यहाँ पक्षी है' इस वृद्धि की उपभी हो। योंकि इस प्रकार की बुद्धि मानयव द्रश्य में ही होती है। जैसे पर्वत में यह अग्नि है', वृक्ष में 'यहाँ बंदर है इस्थादि । यदि यह कहा जाय कि "उक्त बृद्धि में 'यहाँ' इस शक्य से आकाश का कोई भाग नहीं प्रतीत होता किन्तु आलोक प्रतीत होता है अर्थात् आकाश में 'यहाँ पक्षी है इस का अर्थ होता है आकाश में इस आलोकमण्डल में पक्षी है ।" ती यह ठीक नहीं है क्योंकि जिस धालोक व्यक्ति में उक्त बुद्धि नाम जायगी उस आलोकव्यक्ति के अन्य ले जाने पर भी उसी स्थान में जहां पहले आकाश में 'यहाँ पक्षी है यह बुद्धि हुई थी वही पुनः भी उसी प्रकार को बुद्धि होती है। बाद में होने वाली उस मुद्धि में यरि अन्य आलोक का पक्षी के अधिकरणरूप में मान माना जायगा तो आकाश में इस समय भी पक्षी वही हो है जहाँ पहले या इस प्रकार को जो प्रत्यभिज्ञा होती है उस को उपपसि न हो सकेगी क्योंकि पूर्वकाल में उत्पन्न उक्त बुद्धि का पक्षी के प्रधिकरणरूप में विषयभूत आलोकव्यक्ति और उत्तरकाल में होनेवाली उबुद्धि का पक्षी के अधिकरणत्व में विषयभूत प्रालोकदम कि भिन्न है। | आलोक सामान्य की पक्षी आधारतया प्रनीति असंभव ) यदि यह कहा जाय कि "विभिन्न आलोकव्यक्ति को आलोकत्वसामान्यरूप से पक्षी का आधार मानने पर उक्त प्रत्यभिज्ञा की अनुपपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि पालोकयसामान्यरूप से आलोक को पक्षी के आधार में उक्त प्रसोति कर विषय मानने पर उक्त प्रत्यभिज्ञा का इस समय श्री आलोक में ही पक्षी है' यह अर्थ होगा और इस में कोई अनुपपत्ति नहीं है' । सो यह ठीक नहीं है क्योंकि मालोक का अभाव हो जाने पर भी दिन में पक्षी जहां वेला गया था-रात्रि में मो यदि किसी साधन से उस स्थान में पक्षी बेला जाता है तो उस के आधारदेश की इस रूप में प्रत्यभिज्ञा होती है कि
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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