SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 27
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ ૧૨ [ शास्त्रमा स्त७ बलो. १ "दिन में जहाँ पक्षी था-इस समय रात में भी पक्षी यहाँ ही है इसप्रकार की प्रत्यभिज्ञा होती है, अतः प्रत्यमिता का उक्त अयं स्वीकार करने पर भी उसकी उपपत्ति नहीं हो सकती। क्योंकि रात के समप पक्षी आलोकसामान्यनिष्ठ है ही नहीं। [मृतद्रव्याभाव में पची-आधारता की प्रतीति अयुक्त ] यदि मूर्तद्रव्याभाषको पक्षी का प्राधार मान कर उक्तप्रतीति और प्रत्यभिज्ञा की उपपति की जाए तो यह भी ठीक नहीं हो सकता, क्योंकि आलोक के रहने पर मूर्स तस्य का अभाव न होने से बिम में उक्त प्रतीति की उपपत्ति न हो सकेगी। निबिडमूर्तभूयात्राय पालोक के रहने पर भी रहता है अत: पक्षी के आधाररूप में उस का भाम मान कर भी उक्त प्रतीति और प्रत्यभिक्षा की उपपत्ति नहीं की जा सकती, क्योंकि ऐसा मानने पर प्रात:काल जाहाँ पक्षी वेजा गया पा-मध्याह्नकाल में उत्त स्थान से पक्षी के अन्यत्र चले जाने पर भी इसप्रकार प्रत्यभिना की आपत्ति होगी कि.. प्रातः काल जही पक्षी वेला गया था इससमय (मध्याह) में भी पक्षी यहाँ ही है सप्रकार को प्रात्यभित्रा को आपत्ति होगी, क्योंकि इस पक्ष में उक्त प्रत्यभिशा का यह अर्थ होगा कि प्रातःकाल जिस निवित्रमूर्तद्रस्यामाव में पक्षी था-मध्यान में भी जत्ती निविद्यमत्तंबण्याभाष में पक्षी है और इस में कोई अनुपपत्ति नहीं है, क्योंकि अधिकरणमेव से अमावमेव न होने के कारण जिस स्थान में पूर्वकाल में पणी वेजा गया था मध्याह्नकाल में वहां से हट जाने पर भी जिस दूसरे स्थान में पक्षी की उपलब्धि होती है, पक्षी के प्राचाररूप से भासित होनेवाला निविस्मृतद्रव्याभाव उन दोनों स्थान में एक ही है। [इन्द्रियजन्य बुद्धि में बयोपशम के प्रभाव से आकाश का मान ] दूसरी बात यह है कि इह पक्षो' यह प्रयोग प्रवन्धेवकरूप में देशविशेष को प्रहण करनेवालो प्रतीति के अनन्सर हो होता है। अत: इस प्रयोग की प्रेरक प्रतीति को पक्षी के अयम्वकरूप में देशविशेष की हो ग्राहक मानना होगा जो आकाश को निष्प्रवेश मानने पर असम्भव है। यदि यह का को अश्य कि यघि उक्त प्रयोग को पक्षों के अवच्छषकरूप में देशविशेष को ग्रहण करनेवाली प्रतीति पर ही निर्भर किया जायगा तो आकाश को प्रदेशबान मानने पर भी उसकी उपपत्ति नहीं होगी क्योंकि भाकाश का प्रवेश अतोद्रिय होता है अतएव पक्षी के अयच्छेपारूप में उस को विषय करनेवाली प्रत्यक्षात्मक प्रतीति नहीं हो सकती तो यह ठीक नहीं है क्योंकि इन्द्रिमजन्य बुद्धि में प्रतीन्द्रिय देश का भी सयोपशामधिशेष से विशेष्य के सम्बन्धीरूप में भान होता है, जैसे न्यायम्त में शानलक्षणा सनिकय से अन्वन के चाक्षुष प्रत्यक्ष में उस के मुगन्ध का भान होता है । एतेन 'पृथिवीभागोर्धनादिभेदापमया नत्रय मूर्तद्रव्याभावे भेदाभेदव्यय हारोपप निः, अत एवान्यत्र गतेऽपि पतत्रिण पूर्वानुभूतानःस्थितथिव्यादियानन्द्रागोवताभ्रम 'तत्रव पन्त्री' इति भति प्रत्यभिज्ञानम्' इति निरस्तम् , 'इह गगने पात्री' इत्यत्र नियन्मियावच्छेदकस्य स्फरणान् आकाशदेशभेदाभावे पृथिवभागोध्यतादिभेदर्यवानुपपनश्च । एवं घ नात्याच्यादिव्यवहारभेदेना बाकाशभेदसिद्धिः, 'ततः प्राच्यामया' इत्यत्र तदपेश्चया मंनिहिनोदयाचलसंयोगावच्छिमाकारावृत्तिश्यम्' इत्यर्थात् दिशोऽनतिरेकान , तदपचनस्य संनिहितत्वस्य ५ सथास्वभावविशेषत्वात् । 'प्रयागान् प्राच्या काशी' इत्यनः 'प्रयागनिष्ठोदयाचलसंयुक्तसंयोग
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy