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न्या. टीका एवं हिन्वी विवेशन ]
पर्याप्तसंख्यापर्याप्त्यनविकरणोदयाचलसंयुक्नसंयोगशालिमूतवृत्तिः काशी' इत्यन्त्रयस्तुच्छुड्सलाना कापनामात्रम् , तथाननुभवात् , अनुभवप्रवचनाभ्यामाकाशस्यैच सर्वाधारत्वेन क्लृप्ततया दिक्त्वेन मूर्चस्पानाधारवान्चेति दिग्।
[अवता भंद से मिवाधार प्रतीति का उपपादन-पूर्वपक्ष ) कुछ विद्वान पृथ्वी के उच्चावच भाग रूप अवधि भेद से तथा एकाधिक अवता के तारतम्य से एक ही भूमामांव में मेव और अमेव पवहार की उपपसि करते हैं। जैसे, पृथ्वी के किसी एक भाग की अध्यता को दृष्टि से उस में ममेदवान और अमेव पयहार होता है। तथा, उस भाग की कता के तारतम्य से एवं पृथ्वी के प्रन्यनाग की अर्शता को इण्टि से उस में नेवज्ञान और मेवव्यवहार होता है। ऐसा मामने से पूर्व काल में जिस स्थान में पक्षी दृष्ट होता है उस से भिन्न स्वाम में पक्षी के चले जाने पर जहां पूर्वकाल में पक्षी था वहां को इस समय भी पक्षी है इसप्रकारको प्रत्यभिषा की आपसि माह हो सकतीपयोंकि पूर्वकाल में इष्टा से अधिष्ठित मुभाय से पक्षी जितनी ऊंचाई पर बीता था-स्थामाग्तर में चले जाने पर वह पनी दृष्टा से अधिष्ठित स्थान की ऊँचाई से प्रम्य, समान न्यूम अथवा अधिक ऊंचाई पर धीखता से, प्रतः अभवता के मेव से पक्षी के आधाररूप में प्रतीत होनेवाले मूतंमध्याभाव में मेव हो जाने से आधार परिवर्तित हो जाता है।
भिन्न भिन्न स्थान से अत्यभिज्ञा की अनुपसि की शंका ] इस पक्ष में महगंका हो सकती है कि "कोई मनुष्य कुछ समय पूर्व पृष्धी के जित निम्नभाग से परी को जिस रूमान में देखता है पो समय बाद वह मनुष्य उस निम्न माग को छोड़कर अभिमुख पृष्षो के उध्वं भाग पर पहुँचने पर भी क्षी को वहाँ ही देखता है और इसे इस प्रकार को प्रत्यभिता होती है कि 'मो समयपूर्व पक्षी महा था इससमय भी पक्षी यहा ही है' । पृथ्वी भाग से ऊपता के तारतम्य से भूसंख्याभाव मे भेद मानने पर इस प्रत्यभिज्ञा को उपपत्ति न हो सकेगी। क्योंकि यो समय पूर्व पृथ्वी के मिस साग से पक्षी देखा गया था, चोखे समयबाव पृथ्वी के ऊंचेभाग से जब पक्षी बोलता है तब पृथ्वी के दोनों भाग से पक्षी के प्राचाररूप में प्रतीत होनेवाले मूतम्याभाव में अवंता के तारतम्य से भेव हो जाता है।"
भिन्न भिन्न स्थान से प्रत्यमिक्षा की उपपत्ति ] इस शंका का उतर मह है कि मनुष्य को पूर्व समय में जितनी ऊंचाई पर पक्षी बौखा थापक्षी के पापाररूप में प्रतीत होनेवाले मुत्तम्मामाध में उतनी ही ध्वंसा का उत्तरकाल में भ्रम हो भाने से थो समय पूर्व पृथ्वी के मधोभाग से पक्षी के आधाररूप में सीखनेवाले मृत्तव्याभाव में और धो समयबाद पृथ्वी के अध्यनाम से पक्षी के माभयरूप में वीखनेवाले मूर्तद्रव्याभाव में भेद व्यवहार नहीं हो सकने के कारण उक्त प्रत्यभिक्षा में कोई माथा नहीं हो सकती।
[निरव निछम्म भाग की आधारताप्रतीति पूर्वपत्र में अनुपपन-उत्तर पक्ष ]
किन्तु यह मत इस युक्ति से निरस्त हो जाता है कि "श गगने पक्षी-RIETY में इस भाग में पक्षी है इस प्रशीति में आकाश मे पक्षी की आश्रमता के अवक्षेवक रूप में भासित होनेवाला भाग निरवच्छिन्न ही मासित होता है। किन्तु यदि इस प्रतीति में अबस्वकरूप से मासित होनेवाले भागको