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[ शास्त्रात्ता. स्त. लोग है
मूसंनयामावरूप माना जायगा और पक्षी को आश्रयता के अवशेषकरूप में उक्तप्रतीति में मिरवच्छिन्नरूप में भान माना जायगा तो इस समय पसी मही है, वहां नहीं है इस प्रसीति की उपपति न हो सकेगी क्योंकि 'यहाँ-वहां इन दोनों शम्बों से मतंत्रव्याभाव हो गृहित होगा और वह यहाँ वहाँ उभयत्र एक ही है । अतः इस प्रसीसि की उपपति यहाँ सम्प नीका ए मा अध्र्वता विशिष्ठ मूर्तच्याभाव और वहाँ शम्द से अन्य भागावधिकोयताविशिष्ट मूर्तद्रव्यामाग का ग्रहण करना होगा । प्रत: मूर्तद्रव्याभावरूप अवश्यवक का तप्तवता से अवधिवत रूप में हो भान होने से 'आकाश में इस भाग में पक्षी है-इस प्रतीति में निरवच्छिन्नावच्छेनकाय को उपपत्ति महो तोगी।
(आकाश निरंश मानने पर वनादिभेद की अनुपपति ] इसके अतिरिक्त इस मत में दूसरा घोष पर है कि प्राकामा में भेव न मानने पर पहुंची भाग से ऊवतादि का मेष उपपता ही नहीं हो सकता । क्योंकि ऊर्यता का भेव उसी में उपपन्न हो सकता है जिस में आपेक्षिक उच्चाषच माष हो । मसंतव्यासाय तो एक और मिरंश होने से उस में उसचावच भाव नहीं है, अतः उस में अर्यता का तारतम्य मेव नहीं हो सकता और यदि इस के लिये असे प्रदेशवान माना जायगा तो केवल नाममात्र में ही विधान रह जायगा क्योंकि ऐसे परार्थ को पूर्वपक्षी प्रवेशवान् मूर्सयभावा कहता है और सिसाम्ती प्रवेशवान् आकाश काष्ठता है।
[ पूर्व-पश्चिम आदि भेद व्यवहार से आकाशभेद ] इसोप्रकार जैसे 'महाँ आकाश में पक्षी है वहीं नहीं है इस व्यवहार से प्राकाराभव को अति प्रदेशमेव भिन्न आकाशमेव की सिद्धि होती है उसीप्रकार पूर्व-पश्रिम प्राधि के व्यवहारभेव से भी आकाशाभव की सिद्धि होमी है। क्योंकि सप्तः प्राच्यामयम= मह उस से पूर्व में है इस ग्यवहार का आकाश से मिन्न विशारूप पदार्थ जनमत में न होने से यह मर्थ होता है कि यह उस की अपेक्षा संनिहित उच्याचलसंपोगाव भिडमाला में रहा हआ है। इस अर्थ में उबयाचल में प्रतीत होनेवाला तापेभाव अर्थात 'उसकी अपेक्षा' और 'सनिहिताव' मानी 'उस से समीपस्थ होना'-यह उवयाचल का स्वभावविशेष है।
['प्रयाग से काशी पूर्व में है। इस प्रयोग का दिग्द्रव्यवादीकन अर्थ ]
कुछ लोगों को यह मान्यता है कि 'प्रधागाव प्रास्या काफी - काशी प्रयाग से पूर्व में है। इस व्यवहार का अर्थ यह है [क प्रमाग में जितमे उबयाचलसंयुक्तसंयोग है उन मे मो संख्या पर्याप्तिमम्बन्ध से विद्यमान है उस संख्या के पर्याप्तिसम्बन्ध से अनधिकरणभूत उज्याचरूसंयुक्त संयोग के आश्रयभूत भूभाग में काशी है। आशय यह है कि प्रयाग और उदयाचल के मध्य में जितने मूतंद्रम्म हैं उतने मृताध्यों में उपयाचल संयुक्त विफ का संयोग है। सीप्रकार काशी पौर उमाचल के माय जिसने पूर्सद्रस्य हैं, उन में भी उदयाचल संयुक्त विकका संयोग है। स्पष्ट है कि प्रयाग और उवयाचल के मध्यवर्ती मूर्तप्रव्यों की संख्या से काशी और उदयाचल के मध्यवर्ती मुस्ताय को संख्या न्यून होमे से प्रयाग और उदयाचल के मध्यवती मुविध्य संयोगों की संख्या से काशी और उत्याचल के मध्यवत्तौ मूर्सनग्य संयोग की संएमान्यन है अतः न्यूनत्यका संयोग, अधिक संख्या वाले संयोगों में पर्याप्तिसम्बन्ध से विद्यमान संख्या का पर्याप्तिसम्बग्भ से अनविकरण है। तमा इम संयोगों का, स्वाश्रयविक्संयोगसम्बध से प्रधिकरण, या भूखण्ड है जहाँ काशी पलो हुई है।