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________________ स्वा० क० टोका एवं हिन्दी] १५ [ दिद्रव्यषादीकृत अर्थ अनुभव विरुद्ध है ] feng sureurore मे ऐसे लोगों को उच्छल कहते हुये उन की इस मान्यता को इस आधार पर नियुकि रिया है कि उक्त व्यवहार से ऐसे अर्थ का बोध अनुभविक नहीं है किन्तु 'काशी प्रयाग को अपेक्षा संनिहित उदयाचल संयोगाछित आकाश में है इस प्रकार का बोध ही अनुभविक है। दूसरी बात यह यह है कि मनुभव और आगम से माकाश हो सर्वाधार रूप में सिद्ध है अतः का से free freeार्थ में कोई प्रमाण न होने से सूतंपदार्थ को विगुपाधि मान कर कि मानना और उस में किसी की आभारा मानना उचित नहीं है। अतः काशी को उक्त प्रकार के मूलं मूखण्ड में बताना असङ्ग है । I चपयोऽपि स्वाभाविकः प्रयोगजनितश्चेति द्विविधः । तद्वयातिरिक्तस्य वस्तुनोऽमात् पूर्व विस्थाविगमव्यतिरेकेणोत्तरावस्थोत्पत्त्यनुपपत्तेः । न हि बीजादीनामविनाशेऽङ्करादिकार्यप्रा दुर्भावो दृष्टः । न चावगाह - गति स्थित्यावारखं तदनाधारत्वस्य भावप्राक्तन [वस्थाध्यं समन्तरेण संभवतीति । तत्र समुदयजनित उभयत्रापि द्विविधः समुदयविभागरूप एकः, यथा पढादेः कार्यस्य तन्त्वादिकारणपृथक्करणम् । अन्ययार्थान्तरभावगमनलक्षणः, यथा मृत्पिण्डस्य पार्थान्त रभाषः । नाशत्वं वास्याजनकत्वस्वभाषापरित्यागे जनकम्यायोगात् । न चैवं घटविनाशे मृत्पिण्डप्रादुर्भावप्रसक्तिः पूर्वोचरावस्थयोः स्वभावतोऽसंकीर्णत्वात् वस्वन्तररूपे वस्त्वन्तररूपस्वापादयितुमशक्यत्वात् । ऐकल्विनाशश्चैकविकल्पाद्वैत्रसिद एवेति । तदुक्तम्* विगमस्स वि एम विद्दी समुदयजणिअम्मि सो उ दुवअप्पो । समुदय विभागमेतं अन्यंतर भावगमणं या ॥" [ सम्मति १३१ ] इति । , [ नाश का दो प्रकारः- स्वाभाविक प्रयोगजनित ] स्वाभाविक और प्रयोग रूप में उत्पाद के समान वो प्रकार का नाश भी प्रामाणिक है क्योंकि उत्पत्ति और नाव से मुक्त वस्तु का अस्तित्व नहीं होता। पूवस्था के विनाश हमे बिना उसरावस्था की उत्पत्ति नहीं होती। जैसे बीज आदि का विनाश हुये बिना मकुर आदि कार्य का प्रादुर्भाव कहीं नहीं देखा जाता। आकाक्षा धर्म और अधर्म ग्रध्य में अवगाह- गति और स्लिके प्राक्तम आभारतास्वभाव का विनाश हुये बिना अथगाह-गति स्थिति की आधारसारूप पर्याय का उदघ नहीं होता । उक्त द्विविध विनाश समुवमलमिल होता है और वह विनाश को प्रकार का होता है(1) समुदमविभागरूप-जैसे पट आदि कार्य का सर आदि कारणों से पृथक्करण और (२) अर्थारूप में वस्तु का गणन अर्थात् पूर्ववस्तु की उतरावस्था की प्राप्ति जैसे स्विका घट अर्थान्तर में गमन । श्रर्थात् पिण्डावस्या का परित्याग कर मुद्रश्य द्वारा घटावस्था का प्रण । वस्तु *विगमवाप्येष विधिः स मुषयजनितेस तु द्विविकल्पः । समुदय विभागमात्रमर्थान्तरभाद्गमनं हा ।।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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