________________
{ शास्त्रमा सलो
के अवस्पातररामन को यद्यपि उत्पाद ही कहना उचित प्रतीत होता है-माश कहना उचित नहीं लगता, किन्तु फिर भी इसे नाशासलिये कहा जाता है कि अजनकस्वभाव का नाश हुये बिना जनकता मही होती; पर्थात किसी वस्तु का प्रषस्थान्तरगमन पूर्वावस्था के नाश से नियत होता है मत एवं मरस शाद से उसका ग्यपदेश होता है।
[ घटविनाश होने पर मृत्पिड के उन्मज्जन का भय नहीं ] ____ इस पर यह शंका नहीं की जा सकती कि असे मुस्पिा का विनामा होने पर घटरूपान्तरभाव की प्राप्ति होती है इसी प्रकार घट का विनाषा होने पर मस्पिर का प्रादुर्भाव होना चाहिये"-इस शंका के निषेध का कारण यह है कि पिपररूप पूर्वावस्था और घरपोतरावस्था ये दोनों अवस्थायें स्पाय. असंकोण होता है। अर्याद उन अवस्थित पाबापमं का अभाव होता है । इसीलिये फिसो एक वस्तु का अन्य वस्तु रूप में मापादन नहीं हो पाता अर्थात् घट का नाश होने पर कपालावि अन्य वस्तु का प्रावुर्भाव होता है, अतः कपालादि (एक वस्तु) का पिट रूप (अन्य बस्तु) में आपादम नहीं हो सकता। नामा के उक्त विभाग के सम्बन्ध में इस प्रकार को शंका नहीं की जा सकती कि"नाश का एक और सेव है जिसे ऐत्विकनाश कहा जाता है-डत विमान में इस का परिगणन न होने से नाश का उक्तविभाग असंगत है"। कारण यह है कि अंसे ऐकत्विकोस्पात स्वाभाषिकउत्पाबविशेषरूप ही होता है। स्वाभाविक होने से वह बहिभंत महीं होता, उसीप्रकार ऐकस्विकमा भी साक्षानिक नाश विशेषकप ही है। अत: स्वाभाविकनाश के मध्य में जस का समावेश हो जाने से रक्तविभाग में कोई असंगति नहीं है जैसा कि सम्मतिप्रस्थ को तृतीयकाण्डको गाथा ३२ में कहा गया है कि-"जो उत्पाद की स्थिति है वही विगम (नाथ) की भी स्थिति है, अर्थात उत्पाद के जो को मेद है ये बिमादा के भी है, किन्तु पर इतना समुनयजनित विनाश के बो भेद हैं समुवमविभागमात्र और प्रर्थान्सर गमन"। यहाँ समुदयजनितविनाश में उत्पाद का यह असर बताने से यह अर्थतः प्राप्त होता है कि समुखयनित उत्पाद का एक ही भेव है अर्थान्सरभावगमन और यह को सरह से होता है, कोई समुवयविभाग से होता है और कोई समुदायसंयोग से होता है, जैसे पष्ट का तन्तु से पृथक्करणरूप समुवयविभाग मे पहावटम्ध तन्तु का पटानवष्टम्प तातुरूप अवस्थान्तर में गमन होता है चोर तन्नु का जो परस्परसंयोग से पटावष्टब्धलन्तुरूप अवस्थान्सर में गमन होता है वह समुदयसंयोगनित है।
स्थिनिश्चाविचलिसस्त्रमावर पत्याद्म विभज्यते तक्तत्वं च जगतः कश्चितन्द्रपबाव , नयाहि-त्रयोऽयुत्पादादयो भिम्वरूपावच्छेदेन भिन्नकालाः, पटोत्पादममये घटविनाशरूप घटविनाशसमये घटोत्पादस्य, नत्पाद-बिनाशयोरुत्पत्तिविनाशाम्बन्छिमकालसंवन्धरूपायारजस्वितेविनाशविशिष्टघटरूपमृत्म्यित्योर्चा विरोधात् । तथा, प्रत्येकमपि देश-फान्सभ्यां मिन्नकालता, उत्पद्यमानस्यापि पटस्य देशेनोल्पनत्वात् , देशेन पोत्पत्स्यमानत्वात् , प्रयन्धेन चोपद्यमानस्यात, विगच्छतोऽपि देशेन विगतत्वात् , देशेन च विगमिप्यत्गत , प्रवन्धेन ब गिनछच्चाद, तितोऽपि देशेन स्थितत्वात् , देशेन ष स्थास्यन्यात , प्रबन्धन च तिष्ठस्वादिति । एकस्वरूपत्वाद् द्रध्यादर्थान्तरभृतादभिन्मकालाश्तेऽविशिष्टाः सन्तो भि