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[ शास्त्रवा० त० ७ ० १
पर्याय के अवगाहादि प्रथ्यों के संविधान की अभावदसा में उप होने के कारण यदि उन अयगाहकवियों में मो कारण की विवक्षा को जाय तो उस अधिकरणता पर्याय विशिष्ट माकाशावि और उक्त पर्याय के सम्पादक संविधान के प्रतियोगी श्रवगाहकादित्य दोनों में कारगर की विवक्षा से वित् अनंकटिक होता है। जैसा कि सम्मतितर्क ग्रंथ (तीसरे काम गाथा १२०) में कहा गया है--'स्वाभाविक उत्पाद भी समुदयकृत और ऐकल्पिक होगा। आकाश, धर्म और प्रथमं नसीम काय का उत्पाद अनियम से कचित् परप्रत्यय ( अनेक स्थिक) होता है ।'
अथाकाशादीनां मूर्तिमद्रव्यानारब्धत्वे निरवयत्वमेव स्यादिति तनायमनेकान्त इति पेन, प्रदेशव्यवहारस्याकाशेऽपि दर्शनेन तस्य सावयवत्वात् । न च 'आकाशस्य प्रदेशः : ' इति व्यवहारो मिथ्या आरोपनिमित्ताभावाद । न चान्पाप्यवृत्तिसंयोगाधारत्वकृतस्तदध्यारोपः, तथा सति तत्र तस्यैवानुपपत्तेः अवयविनि देशेन संयोगस्यावयवावच्छिनत्व नियमात् । प्राय दर्शनात अपावृप। नन्वेवं परमार - पर्यायार्थता दिसंयोगान् पशता स्यादिति चेत् ? स्यादेव द्रव्यार्थनयेव तस्य निरंशत्वाद, तु सशिताया अप्यभ्युपगमात् । अत एव 'सावयवमाकाशम्, समवायिकारणत्वात् पटवत्' इत्यपि प्रसङ्गापादनं संगच्छते । संगच्छते व 'सावयवमाकाशम् हिमवद्-विन्ध्यावरुद्धभिन्नदेशस्वात् तदधदेशभूभागवत्' इत्यादि ।
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[ आकाशादि द्रव्य में सावययत्व सिद्धि ]
शंका हो सकती है कि आकाशादि अस्तिकायव्य यदि मूर्तिमध्य से अमार होते हैं तो वे अवश्य मिरवयय ही होंगे, अक्षः उन का उत्पाद अनेकान्त गमित नहीं हो सकता' - कितु यह ठीक नहीं है, क्योंकि आकाश में भी प्रवेशव्यवहार वेळा जाता है, अतः वह सावयव है। यदि यह कहा जाय कि 'आकाश में प्रदेशव्यवहार मिम्या से तो यह ठीक नहीं है क्योंकि आकाश को निष्प्रवेश मानने पर उस में प्रवेशया के आरोप का निमित कौन ? कोई निमित्त नहीं है। यदि यह कहा जाय कि आकाश में को व्याप्यवृत्तिसंयोगको आधारता होती है वही आरोप का निमित्त है' - तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि आकाशा को निष्प्रवेश मानने पर उस में वह आधारता ही नहीं उपपन्न हो सकती। क्योंकि अवययोग अध्याध्यवृत्तिसंयोग में अवयवावच्मित्व का नियम सिद्ध है क्योंकि वृक्षादि में या संयोग को ही उपलब्धि होती है। यदि यह नियम न माना जायेगा तो के से वृक्ष के मूलाकि भाग में वृक्ष में होनेवाले संयोग की अवकता होती है उसी प्रकार वृक्ष प्रवयव में भी बृजवृत्तिसंयोग के अवच्छेदक की मापत्ति होगी। इस पर यदि यह शंका की य कि नियम मानने पर परमाणु को भी वश मानना होगा क्योंकि उस में छ: विशाम्रों का चक्याप्यवृत्ति संयोग होता है ।" इस का उत्तर यह है कि परमाणु में पर्यायार्थिक से शा अभिमत है, forय से ही वह निरंश होता है। यह भी ज्ञातव्य है कि जैसे वृक्षादि में सपायत्तिसंयोग में अवयवात्व का नियम सिद्ध है उसीप्रकार पदादि अवयवो थ्यों में समवायि कारणत्व में सावयवत्व का नियम भी सिद्ध है। अतः आकाश को सभ्य का समवायिकारण मानने वाले नेयाविक के प्रति यह प्रसङ्गपावन भी सत हो सकता है कि प्राकाश यदि समयाधिकारण