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________________ [ शास्त्रवास्तिक ७ श्लो०३० शून्यानामसम्यग्दृष्टित्वादेव, जीवराश्यपेक्षया तेषां कायानामपि पुदलतया जीव-पुद्गलप्रदेशानां च परस्पराऽविनिर्भागवृत्तितर्यकत्वस्याऽश्रद्धानात । द्रव्वत एव च 'भगवतेंवमुक्तम्' इति जिनवचनरुचिस्वभावत्वेन सम्यग्दृष्टित्वात् । तदुक्तम्- सम्मति० ३-२८ ] •णिअमेण सद्दहतो छक्काए भावओ ण सद्दाइ। हंदी अपज्जवसु वि सदहणा होइ अविभत्ता ॥१॥ इति । [ जीवनिकाय में षट्त्यनिर्धारण में मिथ्यात्म की शंका ] यदि यह शङ्का को जाय कि-"अनेकान्तवाद में 'जीवनिकाय छः ही होते हैं। इस प्रकार श्रद्धा रखने वालों के सम्यक्त्व को हानि होगी क्योंकि विभाग से न्यूनता का लाभ न होने से मिथ्यात्व को प्रसक्ति अनिवार्य है। कहने का प्राशय यह है कि जब किसी वस्तु का विभाग किया जाता है तब यह बोध होता है कि जितनी संख्या में विभाग किया गया, विभाज्य वस्तु की उससे न्यून या अधिक संख्या नहीं है। प्रत: जीवनिकाय का छ: संख्या में विचार कर होगर उनकी भी न्यूनअतिरिक्त संख्या का प्रभाव बुद्धिमत होगा, जब कि अनेकान्तवाद में एकान्ततः किसी संस्थाविशेष का निर्धारण मान्य नहीं है । अतः 'जीवनिकाय की छः संख्या है' इस प्रकार के श्रद्धान का असम्यक् होना अनिवार्य है।" [ भात्र सम्यक्त्व और द्रव्यसम्यक्त्व का विभाग । किन्तु यह शङ्का उचित नहीं है क्योंकि जीवनिकाय के सम्बन्ध में उक्त श्रद्धा के आस्पद व्यक्तियों को अनेकान्त का यथार्थ बोध न होने से वे सम्यग्दृष्टि से शून्य ही है, अतः उनमें असम्यक्त्व का प्रापावन इष्ट ही है। उक्त श्रद्धानधारियों के असम्यक्त्व का आधार यह भी है कि उन्हेंजीवराशि की अपेक्षा. उनके पुद्गलात्मक शरीर को अपेक्षा, और जोव-पुद्गल के प्रदेशों की अविभक्त स्थिति से-कायपुद्गल और जीव के प्रदेशों में विद्यमान एकत्व का श्रद्धान नहीं है, वे द्रव्य से हो सम्यक दृष्टि केवल इतने ही माने में हैं कि वे जो कुछ मानते हैं उसका 'भगवान ने ऐसा कहा है। यह कहकर समर्थन करते हैं क्योंकि इस प्रकार वे भगवान जिनके वचनों में स्वभावतः हचिसम्पन्न होते हैं। जैसा कि सम्मति ग्रन्थ को माया में कहा गया है कि-"नियम से षट्कायों में श्रद्धा रखने वाला भी व्यक्ति वास्तव में भावतः श्रद्धाशून्य होता है, किन्तु यह विशेष बात है कि अपर्यव में भी उसको श्रद्धा विभाजित नहीं होती।" । न चैव तत्र सम्यग्दृष्टित्वव्यवहारेऽपि सम्पदर्शनप्रत्ययिकनिर्जरानापत्तिः, नय-निःक्षेपादिपरिच्छेदाधीनसकलमत्राथरिज्ञानसाध्या शिष्टप्रवचनरुचिस्वभाव-भावसम्यक्त्वसानिर्जरानवासावपि भावसम्यक्त्वसाधकतया द्रव्यसम्यक्त्वस्वरूपव्यवस्थितेर्मार्गानुसार्यक्योघमात्रानुफक्तरुचिजन्यनिर्जराऽनपायात । इदं तु ध्येयम-ज्ञान-दर्शन-चारित्राणां शिविकावाहक पुरुषवद् मिलितानामेष मोक्षहेतुत्वामिधानादगीतार्थे तदभावेन मोक्षानापत्तेः, अनेकान्तपरिच्छेदरूपस्य ज्ञानस्य के नियमेन श्रद्दधानः षट्कायान् भावतो न श्रद्दधाति । हन्त ऽश्यवेष्वपि श्रद्धानं भवत्यविभक्तम् ।।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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