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________________ स्या०० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] १६५ [ 'युवा न बालः' प्रतीति में भेद के बदले वैधयं के भान की शंका ] यदि यह कहा जाय कि 'युवा न बालः' इस प्रतीति में युवा में बालक के वैधयं का हो भान होता है भेद का नहीं, क्योंकि उक्त प्रतोति के 'युवा म बालः' इस अभिलाप वाक्य में नज पद के दो अर्थ हैं वृत्तिमान और मिन्न । वृतिमत् में बाल शकदार्थ का बालत्यरूप विशेषण के अवच्छेदकीभूत काल से अवच्छिन्न आधेयता सम्बन्ध से अन्वय होता है । अथवा यह भी कहा जा सकता है कि वृत्तिमद के एक देश वृत्ति में बाल का शलत्यावश्छेवक कालावच्छिन्नत्व विशिष्ट निरूपितत्व सम्बन्ध से अन्वय होता है । और उक्त रोति से शल में अग्वित वृत्तिमत् का नज के द्वितीय अर्थ भिन्न के एक देश मेद में प्रतियोगिता सम्बन्ध से अन्वय होता है। इस प्रकार 'युवा न बाल:' का अर्थ होता है 'बालवावच्छेदक काल में बालवृत्ति धर्म से भिन्न धर्म का आश्रय युवा है।' इसी प्रकार 'इदानी अयं न बालः' का अर्थ होता है 'बालत्वावच्छेदक काल में बालवृत्ति धर्म से भिन्न एतत्कालवृत्ति धर्म का आश्रय अमुक व्यक्ति।' इस प्रकार पक्ष से युषा में पाया बोध होकर योवनकालीन धर्म में बाल्यकालीन धर्म के भेव का ही बोध होने से युवा में वाल्यवधर्म्य का हो भान होता है, न कि युवा में बालभेद का जान । उक्त प्रतीति से युवा में बालभेद का भान न होकर बालवैधयं का ही भान मानना पुक्तिसंगत है, क्योंकि-'युवा बालात् न पृथग्' इस प्रतीति में बालावधिक पृथक्त्व के अभाव का भान होने से बाल अन्योन्याभाव का प्रभाव सिद्ध होता है क्योंकि जिसमें जिसकी अपेक्षा पृथक्त्व नहीं होता उसमें उस वस्तु का अन्योन्याभाव नहीं होता। न्यायाचार्य ने भी 'श्याम घट से रक्तघट विलक्षण होता है, पृथक्-भिन्न नहीं होता' यह कहकर उक्त बात का ही समर्थन किया है। इस प्रकार युवा और बाल का भेव सिद्ध न होने से दोनों में एकान्त अमेव हो है [केवल बैंधयं का भान मानने पर आपत्ति-उत्तर ] किन्तु यह कथन ठीक नहीं है। क्योंकि युवा और बाल में वैधयं मात्र ही मानने पर युवा पहले भी बाल नहीं था इस प्रतीति की आपत्ति होगी, क्योंकि बाल्यकालवच्छेदेन बाल्यवृति धर्म से भिन्न प्राक्कालवृत्ति सत्त्व प्रादि बाल का धर्म्य युवा में विद्यमान है। उक्त प्रकार के वैधर्य का नत्र पद से बोध मानने पर श्याम घट में भी श्याम का उक्त प्रकार का बंधय सम्भव होने से 'श्यामोन श्यामः' इस प्रतीति की मी प्रापत्ति होगी, क्योंकि श्यामत्यकालावच्छेवेन श्याम वृत्ति से भिन्न मदरूपता श्याम में विद्यमान होते से श्याम में श्याम का उक्त प्रकार का धर्म्य सुलभ है। दूसरी बात यह है कि युवा में बाल का भेद प्रत्यक्ष सिद्ध है फिर भी यदि उक्त रीति से उसका अपलाप किया जायमा तो प्रत्यभिज्ञा से भी आस्था ऊठ जायगो, क्योंकि प्रत्यभिज्ञा के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि यह प्रक्षेद को ग्रहण न कर साधर्म्य मात्र को ग्रहण करती है। किन्च, प्रत्यभिज्ञा द्वारा अभेद की सिद्धि होने पर भी प्रभेद के साथ भेद मानने में कोई विरोध न होने से यह बताया जायगा कि प्रत्यभिज्ञा से अभेव मात्र की सिद्धि न होकर भेद-अभेव उभय की सिद्धि होती है । उक्त रोति से वास्तविकता का विचार करने पर यह निर्विवाद सिद्ध है कि वस्तु अन्वय-व्यतिरेक अर्थात् भेदाभेव उमयात्मक होने से अनेकान्तरूप ही होती है। न चैवमनेकान्ते 'पडेव जीवनिकायाः' इति श्रद्धानवता सम्यक्वभङ्गः, विभागाक्याद् न्यूनताऽलाभेऽनेकान्नव्याघाताद् मिथ्यात्वापत्तरिति वाच्यम् ; भावतस्तेषामनेकान्तपरिज्ञान
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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