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[ शास्त्रवा० स्त०७ श्लो० ३०
मानी जा सकती, किन्तु वह सजातीय के अमेद का ही ग्राहक हो सकती है। अतः बाल-युवा आदि शरीरों में होने वाली अभेव को प्रत्यभिज्ञा से उनमें ऐक्य नहीं सिद्ध हो सकता है तो यह ठीक नहीं है, क्योंकि एक घट में कालभेव से होने वाले श्याम और रक्त रूप से श्याम और रक्त घर का वैधर्म्य नहीं होता प्रतः श्याम और रक्त घट का अनेद बाधित नहीं होता, उसी प्रकार बाल युवा आदि शरीरों गा भितरिया भी बाल-गुदागरीके बंधम्य रूप में गृहोत नहीं होता। अतः उनके आधार पर बाल युवा शरीर का भी अभेद बाधित नहीं हो सकता । यदि यह कहा जाय कि-'घट और शरीर में समष्टि रखना उचित नहीं है, क्योंकि श्याम और रक्त घट में जो वधर्म्य है वह शुद्ध घट व्यक्ति के अमेव का विरोधी नहीं है किन्तु शरीर के सम्बन्ध में बसी हो बात नहीं है-यह कहना समीचीन नहीं है क्योंकि घट के समान ही शरीर के विषय में भी यह कहा जा सकता है कि-बाल्यावस्था और युवावस्था के शरीर में जो भिन्न परिमाणरूप वधर्म्य है वह शुद्ध शरीर व्यक्ति के प्रमेव का विरोधी नहीं है।
येऽपि उक्तप्रत्यभिज्ञाभीता बाल्यादिभेदेऽपि शरीरमेकमेव' इत्येकान्तेऽभिनिविशन्ते, तदुक्तं पदार्थरत्नमालाकृता-परे तु तत्राश्रय एक एत्र, प्रत्यभिज्ञानात्' इति मन्यमानाः परिमाणान्तरोत्पादमाह; इति; तेऽपि मन्दाः, अबाधितभेदव्यवहारादिविलोपान् । अथ 'युवा न बालः' इत्यत्र यूनि बालबैधर्म्यमेव भासते । तत्र नो वृत्तिमान् मिन्नं चार्थः, वृत्तिमति बालत्वविशिष्ट विशेषणावच्छेदककालावच्छिन्नाधेयतया वृत्तिमान , भिन्ते तत्रैव च कालादिग्प्यन्वेतिः तथा च 'इदानीं न बालः' इत्यस्य 'बालत्वविशिष्ट्रवृत्तिमद्भिन्नैतत्कालीनधर्मवान्' इत्यर्थः । युक्तं चैतत् , 'न पृथग्' इति प्रतीतेस्तदवधिकपृथक्त्वाऽभाववद्रव्यत्वेन तदन्योन्याभावाभावसिद्धः । तदाहायाधार्या: 'श्यामाद् रक्तो विधर्मां न तु पृथग' इति चेत् ? न, 'प्राग न बाला' इत्यस्याप्यापत्तेः, बाल्यकालावच्छेदन बालवृत्निभिन्नस्य सत्रादेः प्राक्कालवृत्त' नि सच्चात् । ईदृशश्यामवैधय॑स्य श्यामनिष्टत्वात 'श्यामो न श्यामः' इत्यादेरपि प्रसङ्गात् । प्रत्यक्षसिद्धभेदप्रतीतेरपहवे प्रत्यभिज्ञायामध्यनाश्वासात् , अभेदसिद्धावपि भेदाऽविरोधात , भेदाभेद एक प्रत्यभिज्ञाया उपपादयिष्यमाणत्याच्चेति दिग् । नदेवमन्धयादिमयमेव बस्न्यिनि सिद्धम् ।
[ शरीगदि में एकान्त अभेदवादी पदार्थरत्नमालाकार कथित मत का निरसन ]
कुछ लोग ऐसे हैं जो माल युवा आदि शरीरों में पानेद को प्रत्यभिज्ञा से त्रस्त होकर 'बाल्य यौवन आदि अवस्थाओं का भेव होने पर भी शरीर अभिन्न ही होता है इस एकान्त पक्ष में अभिनिविष्ट होते हैं । जसे की पदार्थरत्नमालाकार ने कहा है कि अन्य लोगों को यह मान्यता है कि बाल्य प्रादि विभिन्न अवस्थानों का आश्रय मूत शरीर एक ही होता है। क्योंकि उन अवस्थाओं के शरीर में अभेद की प्रत्यभिज्ञा होती है, अतः शरीर नहीं बदलता किन्तु उसमें पूर्व परिणाम को निवृत्ति होकर प्रन्य परिणाम की उत्पत्ति होती है। ऐसे सभी लोग "व्याख्याकार श्री यशोविजयजी" की दृष्टि में मन्द प्रज्ञ हैं क्योंकि विभिन्न अवस्थाभेद से शरीर में जो भेद का अबाधित व्यवहार होता है उसका लोप हो जाता है।