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________________ स्या० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] 'प्राग् बाल आसम् इदानी युवास्मि' इत्यादिघिया चाहतास्पदस्य बाल्य-यौवनादिभेदेनोत्पादनाशस्थित्यात्मकस्य सिद्धेः । न चेदेवम् , बाल्यादिवद् मनुष्यत्वादेरपि 'शरीरमात्रनिष्ठत्वे मनुष्यत्यादिप्रयोज्यो गुणविशेष आत्मनि न घटेत । 'मनुष्यत्वादिकं संयोगादियदुभयाश्रितमिति चेत् १ वाल्यादिकमपि तथैव । न चैवं रोऽ" मालिकिनासायनोर भेदः सिध्यश्चार्वाकमतं न प्रतिक्षिपेदिति वाच्यम् । स्यात्कारस्यैव चार्वाक-नैयायिकयोरुभयोरपि वारणे समर्थत्वात् , मृगपतेरिव मृगवारणयोः । 'शरीरस्यापि बाल्यादिभेदेन भेद एव' इति वदताम भेदप्रत्यभिज्ञाक्षतिः । न च विभिन्न परिणामवरवलक्षणवैधयंत्रानकालोत्पत्तिकायास्तस्यास्तजातीयामेदविषपकत्वमेवेति वाच्यम्; घटे श्यामत्व-रक्तत्वयोरिव शरीरे विभिन्नपरिमाणयोर्विधर्मत्वेनाप्रतिसंधानात् , विशिष्टवैधर्म्यस्य शुद्धव्यक्त्यभेदाऽविशेधित्वं च समानम् । [बाल्यादि अवस्था शरीर की नहीं, आत्मा की है ] इस सन्दर्भ में नैयायिक प्रावि का यह कहना है कि-'बाल्य-यौवन प्रादि भाव शरीर की ही अवस्थाएं हैं, प्रात्मा तो बाल्य आदि अवस्था के भेद से न निवृत्त ही होता है और न भिन्न हो होता है, वह तो नित्य एकरूप ही रहता है, किन्तु शरीर अवस्था भेद से परिवर्तित होता रहता है"-किन्तु यह कथन ठीक नहीं है क्योंकि 'मैं बालक हूं' इस प्रकार को प्रतीति में बाल्य-प्रहंत्व का सामानाधिकरण्य अर्थात् अहं अर्थ आत्मा बाल्य का आस्पद होना सिद्ध है । एवं 'मैं पहले बालक था अब युवा हूं इस प्रतीति से यह भी सिद्ध है कि अहंता का प्रास्पद-आत्मा बाल्य-यौवन आदि के भेद से एक साथ ही उत्पत्ति विनाश और स्थिति रूप है । यदि यह न माना जायगा तो बाल्य प्रादि के समान मनुष्यत्व आदि भी शरीर का हो धर्म होगा और उस स्थिति में मनुष्यत्व प्रादि मूलक विशेषगुण भी आत्मा का धर्म न हो सकेगा। यदि मनुष्यत्व आदि को संयोग आदि के समान शरीर-मात्मा उभय में पाश्रित माना जायगा तो बाल्य-यौवन प्रादि भी मनुष्यस्वादि के समान ही उभयाश्रित होगा। [चार्वाकवाद की आपत्ति का निवारण ] यदि यह कहा जाय कि-'उक्त प्रतीतियों के प्राधार पर बाल्यादि को यदि आत्मा का धर्म माना जायगा, तो 'मै गौर हूं' इस प्रतीति के प्राधार पर शारीर और प्रात्मा का अभेद सिद्ध होने से चार्वाक के शरीरात्मवाद का खण्डन न हो सकेगा? - तो यह ठीक नहीं है क्योंकि स्यावाद सिद्धान्त में 'स्यात्' के सहयोग से चार्वाक और नैयायिक दोनों का उसी प्रकार वारण हो जाता है जैसे मगपति मगशम्द के साय पतिशब्द के जोड देने से सामान्य मग और हस्तो दोनों का वारण हो जाता है। बाल्य आदि के भेद से प्रात्मा के भेद की बात तो अलग रहे, शरीर का भो बाल्य प्रादि के भेद से एकान्त भेद नहीं माना जा सकता, क्योंकि ऐसा मानने पर एक व्यक्ति के बाल-युवा प्रौर घृद्ध शरीर में जो अभेद को प्रत्यभिज्ञा होती है उसकी उपपत्ति न होगी। [चाल्यादि अभेद की प्रत्यभिज्ञा सजातीयाभेदग्राहक होने की शंका का उत्तर ] यदि यह कहा जाय कि-'बाल युवा और वृद्ध शरीर में विभिन्न परिणामरूप बंधH का ज्ञान होता है अतएव उस काल में होने वाली प्रभेद को प्रत्यभिज्ञा को व्यक्ति के प्रमेव को ग्राहक नहीं
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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