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________________ १९२ [ शास्त्रयात्० स्त०७ श्लो. २८ न्वय-व्यतिरेकशवलम् , अन्यथा तदभावः अधिकृतवस्त्वभावो भवेत् , सर्वथाऽसत्सद्भाचविरोधात् । तदिदमुक्तं सम्मतिकृता [ प्रथमकाण्डे ] * पटिपुग्नजाचणगुणो जह लजइ बालभावचरिएण | कुणइ य गुणपणिहाणं अणागयसुहोवहाणथं ॥ ४३ ॥ ण य होइ जोधणत्यो बालो अन्नो वि लाइ न तेण । णवि अ अणागयतम्गुणपसाहणं जुअइ धिभत्ते ॥ ४४ ॥ इति । [बाल और युवान अवस्था में एकान्त अभेद भी नहीं ] कारिका ३० में युवा और वृद्ध में एकान्त अभेद का खण्डन किया गया है। कारिका का अर्थ इस प्रकार है-'जो व्यक्ति युवा होता है वह युधा होने के साथ ही वृद्ध भी होता है, वह पौधन काल में भी वृद्ध पर्याय से युक्त होता है । इस प्रकार युवा और वृद्ध में अ यन्त अभेद है'- यह नहीं कहा जा सकता क्योंकि व्यक्ति के यौवन काल में यह व्यक्ति वर्तमान में युवा है वृद्ध नहीं है' यह प्रतीति होती है। यदि व्यक्ति युवा काल में भी वृद्ध पर्याय का आश्रय हो तो यह प्रतीति नहीं हो सकती, अतः स्पष्ट है कि युवा और वृद्ध में एकान्त अभेद नहीं है । 'युवा काल में यु । व्यक्ति में यह जिस सन्तान का युवान है उस सन्तान के वृद्ध का एकान्त भेद हो है' यह भी नहीं कहा जा सकता क्योंकि युवा व्यक्ति अपने सन्तानवौ वृद्ध के लिए आवश्यक साधनों से संग्रह के लिए चेष्टाशील होता है। यदि युवा अपने सन्तानवर्ती वृद्ध से पूर्णतया भिन्न हो हो तो तवर्थ उसकी चेष्टा नहीं हो सकती क्योंकि अन्य के लिए व्यक्ति चेष्टाशील नहीं होता। इस तरह युवा और वृद्ध में एकान्त अभेद और एकान्त भेद दोनों सम्भव नहीं है। __ वस्तु अन्वय और व्यतिरेक अर्थात् नेदाभेद दोनों से मिश्रित होती है। यदि वस्तु को ऐसा न माना जायगा तो उसका प्रभाव ही हो जायेगा, क्योंकि, एकान्त असद्भाव वाली वस्तु में सदभाय का होना विरोध है। इसी बात को सम्मतिकार ने ४३, ४४वौं गाथा में इस प्रकार कहा है"यौवन की प्राप्ति होने पर व्यक्ति बाल्यकालोन कार्यों से लज्जित होता है और वृद्धावस्था में सुख की उपलब्धि के लिए तवनुकल साधनों का संग्रह करता है।" "युवावस्था का व्यक्ति बाल्यावस्था के व्यक्ति से एकान्त भिन्न नहीं होता क्योंकि यदि वह भिन्न होता तो बाल्यावस्था के कार्यों से लज्जित न होता, क्योंकि अन्य व्यक्ति को अन्य के कार्यों से लज्जा नहीं होती। इसी प्रकार युवा व्यक्ति बद्धावस्था के व्यक्ति से भी एकान्ततः भिन्न नहीं होता, यदि वह भिन्न होता तो उसकी आने वाली अवस्था के लिए सुख-साधनों का संग्रह न करता क्योंकि अन्य व्यक्ति के लिए अन्य इस प्रकार का संग्रह नहीं करता।" यत्त-'वाल्याद्याः शरीरस्यैवावस्थाः, आत्मा तु बाल्यावस्थाभेदाद् न निवर्वते भिद्यते वा, नित्यकरूपत्वात्तस्य, शरीरं तु परिणामभेदात् भिद्यत एव' इति नैयायिकादीनां मतम्, तदसत्, 'अहं बाला' इत्यादि प्रतीत्या बालवाद्यवस्थानामहत्त्वसामानाधिकरण्यस्य * प्रतिपूर्णयौवनगुणो यथा लज्जते बालभावचरितेन । करोति च गुणप्रणिधानमनागतसुखोपधानार्थम् ।। न च भवति यौवनस्थो बालोऽऽन्योपि लज्जते न तेन 1 नापि चानागततद्गुणप्रसाधनं युज्यते विभक्ते ॥
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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