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________________ स्मा. टोका एवं हिन्दी विवेचन ] भेदो भावितः । एवमनागत-वर्तमानयोरपि, यत आयत्यैव वार्धक सुखहेतुधनाधर्थमेव चेष्टते । अतो युव-वृद्धयोरभेदः । न ह्यन्यो अन्यार्थं चेष्टत इति ॥ २६ ॥ [लोकानुभव से कथंचित् भेदाभेद का उपपादन] कारिका २६ में पूर्व कारिकोक्त निष्कर्ष का लोकानुभव द्वारा समर्थन किया गया है । कारिका का अर्थ इस प्रकार है-बाल्यकाल में जो चोरी. अस्पृश्य विष्टादि के स्पर्श, तथा क्रीडादि जिन कार्यों से लज्जित नहीं होता, वह ही युवान होने पर अपनी इस अवस्था में उन्हीं कार्यों से लज्जित होता है, वह अनुभव करता है कि पूर्वकाल में मने हो इन कार्यों को किया है जिसे प्रब करने में लज्जा होती है। इससे स्पष्ट है कि जो व्यक्ति पूर्वकाल में बालक था यहो कालान्तर में युवान होता है, क्योंकि यदि ऐसा न हो तो युवान को बाल्यकाल के कार्यों से, बालक पर्याय के साथ लज्जा के मुलभूत अभेव की प्रत्यभिज्ञा न होती । अतः प्रत्यभिज्ञा से बाल और युवान का अभेद निविषाद है । बालक एकान्तरूप से बालक ही नहीं होता क्योंकि युवान होने पर इस प्रकार को भेदबुद्धि होती है कि सम्प्रति यह युवान है, बालक नहीं है। [बाल और युवान में भी एकान्तभेद नहीं है ] इसके अतिरिक्त यह भी ज्ञातव्य है कि बालस्वभाव का परित्याग हुए विना युवान स्वभाव को प्राप्ति नहीं होती, क्योंकि उत्तर स्वभाव को प्राप्ति में पूर्व स्वभाव का परित्याग कारण है। यदि बाल और युवान में एकान्ततः भव हो तो पूर्व स्वभाव परित्याग पूर्वक उत्तरकालिक स्वभाव की प्राप्ति को उपपत्ति नहीं हो सकती। यदि यह कहा जाय कि 'यौवनकाल में युवावस्था में बालक से पूर्ण भिन्नता होती है क्योंकि उस समय यह प्रतीति होती है कि वर्तमान में यह युधा है बालक नहीं हैं तो यह कहना उचित नहीं है क्योंकि बालक सन्तान से भिन्न सन्तान के युवान को बाल्यकाल के कार्यों से लज्जा नहीं होती। प्रतः जिस युवा को बाल्यकाल के कार्यों से लज्जा होती है उसे बालक के सन्तान का ही व्यक्ति मानना होगा। अतः उसमें उस सन्सान के बालक का भेद मात्र ही सिद्ध नहीं होता । फलतः उक्त रीति से अतीत और वतमान में कथश्चित भेद-अभेद दोनों की सिद्धि होती है। इसी प्रकार अनागत और वर्तमान में भेव-अभेद दोनों का अभ्युपगम आवश्यक है, क्योंकि युवा पुरुष हो वृद्धावस्था में सुख देने वाले धन आदि का संग्रह करने की चेष्टा करता है । इस चेष्टा से यह स्पष्ट है कि वर्तमान युवा और भनागत वृद्ध में, अभेद है। यदि दोनों में भेद मात्र ही हो तो पुवान की उक्त चेष्टा की उपपत्ति नहीं हो सकती क्योंकि कोई एक व्यक्ति किसी अन्य व्यक्ति के लिए प्रयत्नशील नहीं होता ॥ २६॥ न चाप्यभेद एवेत्याहमूलम्-युवैव न च वृद्धोऽपि नान्यार्थं घेष्टनं च तत् । अन्वयादिमयं वस्तु तदभावोऽन्यथा भवेत् ॥ ३० ॥ न च युबैच चूद्धोऽपि सर्वथा बृद्धपर्यायापन्न एव, 'इदानीमयं युवा न वृद्धः' इति प्रतीतेः । न च तत्काले तत्र यूनि तत्संतानीयवृद्धभेद एव, यतोऽन्याथै संतानान्तरवृद्धवद न च चेष्टनं कायव्यापाररूपम् । तत्-तस्मात् , वस्तु अन्वयादिमयं, आदिना व्यतिरेकग्रहाद
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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