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________________ १९० [शास्त्रवार्ता० स्त०७ श्लो० २८-२९ प्रत्यक्षस्थल में सम्यग् द्रष्टा के सम्यग् दर्शन गुण को महिमा से वसी प्रतीति होती है, किन्तु मिथ्यादर्जी को सापेक्ष दो घनों का एक धर्मी में निमित्त भेद के विना जो बोध होता है वह संशय के समान दोषवश हो होता है । इसीलिए विद्वानों का यह कथन है कि सत् और असत् दोनों प्रकार के पर्यायों में क्या अन्तर है यह ज्ञान न होने के कारण मिथ्यावर्ची का सभी ज्ञान विपर्यासरूप होता है जब कि सम्यग्दृष्टि का संशय आदि ज्ञान भो तथाविध दोषजन्य न होने से यथार्थ होता है । इस विषय का विस्तार अन्यत्र तत्त्वार्थहाशास्त्र और विशेषाधयकभाष्यादि में प्राप्य है ।। २७ ॥ फलितमाहमूलम्-तस्यैव च तथाभावे तन्निवृत्तीसरात्मकम् । द्रव्य-पर्यायवद्वस्तु बलादेच प्रसिध्यति ।। २८ ।। तस्यैव घ-संसारिणः, तथाभावे-मुक्तभावेऽभ्युपगम्यमाने, तद्-अधिकृतं वस्तु, निवृत्तीनरात्मक निवृत्त्यानिवृत्तिस्वभावम् बलादेव-स्याद्वादसाम्राज्यादेव द्रव्य-पर्यायवत् प्रसिध्यति, तस्येव तथा भवनादिति ॥ २८ ॥ कारिका २८ में पूर्वकारिकाओं में उक्त बातों के निष्कर्ष का कथन है जो इस प्रकार है, संसारी जीव को ही मुक्त मानने में स्याद्वाद के प्रभाव से ही यह सिद्ध हो जाता है कि संसारी-मुक्त अधिकृत वस्तु कश्चित निवृत्ति और अनिवृत्ति उभयस्वरूप है। वस्तु द्रव्य पर्याय उभयात्मक होती है प्रतः प्रत्येक वस्तु की द्रव्य रूप से अनिवृत्ति और पर्यायरूप से निवृत्ति होती है । अतः संसारी जीव जब मुक्त होता है तब उसको संसारात्मकता को निवृत्ति और आत्मद्रध्यात्मकता की अनिवृत्ति होती है ।। २८ ॥ तदिदं लोकानुभवतोऽपि साधयन्नाहमूलम्-लज्जते बाल्यचरितैर्याल एव न चापि यत्।। युवा न लजते चान्यस्तैरायत्यैव चेष्टते ॥ २९ ॥ लज्जते बाल्यचरितः चौयाँ-संस्पृश्यस्पर्श-क्रीडादिभिः, अतो चाल एवं युवा, 'अहमेव पूर्व चौर्याद्यनुप्ठितवान्' इति लज्जानिबन्धनाऽभेदप्रत्यभिज्ञानाद् वाल-यूनोरभेदसिद्धः। न चाप्येकान्तो बाल एव यत्-यस्माद् युवा, एवं हि 'अयमिदानी युवा, न पाल' इति भेदप्रतिभासो नानुरुद्धः स्यात् । न च बालस्वभावाऽपरित्यागे युवस्वभावपरिग्रहोऽपि स्यात् , उत्तरस्वभावे पूर्वस्वभावपरित्यागस्य हेतुत्वात् । न च तत्काले यूनि बालसामान्यभेद एव, 'इदानीं युवा न बालः' इति प्रतीतेरिति वाच्यम् , यतो न चान्यः भिनसंतानान्तरघुवा, ता-बाल्यचरितः लज्जते, न अतस्तत्र तत्संतानीयबालभेद एव । तदेवमतीतवनमानयोभदाॐ द्रष्टव्य-सदसतोरविशेषाद्यदृच्छोपलब्धेरुन्मत्तबद-इति तत्त्वार्थमहाशास्त्रं १-३३ । तथा, सदसदविसेसणामो० इति गाथा विशेषावश्यके उपदेशपदादौ च ।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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