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[शास्त्रमा सलो . १३
मान करता है और में परमाणु एकस्य पौर स्थूलत्व से शूग्य है अतः उसके प्रतिभास का मियाब ममिवार्य है।" सो मह ठीक नहीं है, क्योंकि यदि परमाणों का एक संचव माना गया तो वही अबमबी ग हण
रसवाहिद होने से उसके माममात्र में हो विवाद रह जाता है, उसे परमाणुओं का संचम कहा जाय अथवा उसे परमाणुओं में अनुस्यूत एक बग्य कहा जाम इसमें कोई तारिखक अम्तर महाँ है । दूसरी बात यह है कि यदि परमाणुमों में अनुत्पूत कोई एक भूल चमन माना जायया तो वयवभिन्न अवयवी का मस्तिावन मामनेवाले वावी पास परमाणु का भी साधक कोई प्रमाण न रह जायगा क्योंकि को प्रत्यक्ष सर्वसम्मत है उतने मिघ्यावं और सत्यत्व के विषय में मस्य प्रौर मावीमत में जपलम्बमान स्थल एक स्वभाव कोई वस्तु न होने से उसे परमाणु का कार्य नहीं माना जा सकता। अत: उसके कारणरूप में परमाणु का मनुमाम भी नहीं हो सकता।
. पदि यह कहा जाय कि-'जसे धन को विभिन्न वृक्षों के समूहरूप में प्रतीति से शिशपा मावि विभिन्न वृक्षों का अवगम होता है उसीप्रकार स्थलाकार प्रतिभास से परमाणुशों का अवयम हो सकता है क्योंकि, जैसे पन वृक्षों का समूह है से स्थलाकार भासमान पदार्थ मी परमाणुमों को समष्टि है।"-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि यम विभिन्न वृक्षों का समुदाय यह समुबापी यानी समहारतर्गत एक एक सिमापावि पक्ष का धर्म है । अतः धर्मप्रत्यय से धर्मों का प्रत्यय युक्तिसंगत है किन्तु स्थूलाकार यह परमाणु का धर्म महीं है । अत एष हलाकार प्रत्यय से परमाण का प्रत्यय मुक्तिसङ्गस नहीं हो सकता।
____ कथं च परः कल्पनाबाने भ्रान्तसंविदित्रा स्वसंवेदनापेक्षया विकम्पेतरयोप्रान्ततरयोग परस्परच्यावृत्तपोराकारयोः कथचिदनुत्तिमभ्युपगच्छन्नध्यक्षा हेतु-फलयोयविन्यनुविधामप्यनुवृत्ति प्रतिषिपेत् । संशयज्ञानं या परस्परयायत्तोल्लेखद्वय विभूत् थोकमप्यते तदा किं न पूर्वापक्षणप्रवृत्तमेकं स्वीकृति हेतु-फलरूपं बस्तु ? शरद-विधुन्प्रदीपादीनामुत्तरपरिणामाऽप्रत्यक्षन्वेऽपि तत्सद्धावसाधनात पारिमाण्डल्यादिवत्त मंपिझायाकारश्किल् शभ्यसम्पापि फेनचिद् रूपेण परोचस्याविरोधात् । न च पारिमाण्डल्यादः प्रत्यक्षता, शब्दाघुनरपरिणामेऽप्यस्या वाल्मात्रेण सुघचत्त्वात् । न च शब्दादरनुपादानोत्पत्तियुक्तिमती, सुमप्रयुद्धघुझेरपि निरुपादानस्वग्रसङ्गान् ।
[ कारण-कार्य के प्रत्यक्षसिद्ध भेदाभेद निषेध अनुचित ] यह भी ध्यान देने योग्य है कि मौज जो विकल्पात्मक शान और भ्रमात्मकन्नान में स्वसंधेविश्व-स्वग्राहकरव की अपेक्षा विकल्प और विकल्पतर एवं भ्रान्त और भाग्तेतर ऐसे परस्परविरु
आकारों की कथरि मनुवृत्ति मानता है वह कारण और कार्य में प्रत्यक्षसित भेदानुविज अमेष का निषेध से कर सकता है ? एवं यह भी जातव्य है कि बौद्ध जब परस्पर ध्यावृत्त भावाभाव के उल्लेखाय-1 धारण करनेवाले संशयशान को यदि एक मानता है तो वह पूर्वापरक्षणों से सम्बस फल और हेतु एसयुभषाएमक एक पातु का स्वीकार गयों नहीं करता। यदि यह कहा जाय कि-'यह वस्तु को फल-हेतु उभमास्मक मानने को प्रस्तुत नहीं हो सकता क्योंकि प्रतिमशाद-मेघविनुष-जामुक्त आकाश