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________________ ६१ स्पा० ० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] कक्का जाम होने पर सर्परूप प्रतियोगी का ज्ञान और सर्पमेव के साथ इन्द्रियसंनिकर्ष विद्यमान होने से सर्पमेव का ज्ञान स्वाभाविक है और सर्प मेद का ज्ञान सर्प के अवसान का विरोधी है। वैशस्थित वस्तु के सम्वन्ध में सार्वजनीन अनुभव भी यही है कि उस के सामान्याकार की प्रतिपति प्रथम होती है और विरोधाकार की प्रतिपत्तिवाद में होती है। सामान्यविशेष की प्रतिपत्ति के इस पौर्वापर्य के कारण हो जैन सिद्धान्तवेता अवग्रह- इहा- अब धारणा हम कानों में कालमेव का अपरा है, सरज्ञान का कारण होता हे मोर कार्यकारणभाव पौर्वापर्य नियत होता है । पूर्व यदि च मूलमध्याज्यानुस्यूतस्थूलै फाकारप्रतिभासोऽपहृन्यते, तदा विविक्ततत्परमा प्रतिभासस्याप्यपराव शून्यताप्रसङ्गः । न चैकत्वप्रतिभासस्य तद्विषयस्य विक्रम्प्यमानस्याऽघटमानत्वा मिध्यात्वम्, तस्थान्यानालम्बनत्वात् । 'संचित परमाम्यालम्बनः स प्रतिमास इति वेद १ न संचयस्यैकस्प स्थानीयत्वात् । न चै परमाणुष्वपि परस्य मानमस्ति प्रत्यक्षस्य विप्रतिपत्वात् उपलभ्यमानस्थूलैकस्वभावस्य चाऽवस्तुत्वेन सत्कार्यत्वस्य परै रनभ्युपगमात् । न च चनादिप्रत्ययात् शिंशपाद्यवगतियत् स्थूलात्रभावात् तत्प्रत्ययः वनादेः शिशपाधर्मत्वात्, स्थूलाकारस्य च परमाणुधर्मत्यानभ्युपगमात् । , [ स्कूलाकार प्रतिभास का अपलाप अशक्य ] इस संदर्भ में यह भी ध्यान देने योग्य है कि यदि मूल मध्य अन भागों में अनुगत स्थूल एक rarat आकार के प्रतिभास का अपहरण किया जायगा तो प्रतिभासमानतया अभिमतयस्तु का विविक्त यानी पयानुपष्ट परमाणु के प्रतिभास का भी अपलाप हो जाने से शून्यता का प्रसंग होगा। आशय यह है कि स्थूलवस्तु को प्रत्यक्षसि मामने पर ही उसके परम्परया कारणरूप में परमाणु का अनुमानिक प्रतिभास होता है। किन्तु यदि विभिन्न प्रववों में अनुस्यूत कोई स्प्यूल वस्तु न मानो जायगी तो परस्पर विथिकाय (स्व) शून्य परमाणु का हो अस्तित्व प्राप्त होगा और यह भी अन्य प्रमाण के अभाव में सिद्ध नहीं हो सकता । अतः सर्वशून्यता का प्रसङ्ग अनिवार्य होगा । [ अवयवी का प्रतिभास मिश्रण नहीं है ] यदि यह कहा जाए कि जो एक स्थूलाकार बस्तु (अवपत्रो) को ग्रहण करता हुआ प्रतिभास अनुभूत होता है यह मिथ्या है। क्योंकि उसके विषम का उसके अंखों से भेदाभेव का विकल्प श्रथवा अंशों में उसके एकवेशेन अथवा कारस्म्र्येण वर्तन का रूप करने पर वह उपपन्न महीं होता ।"तो यह ठीक नहीं है क्योंकि यह प्रतिभास अन्यालम्बन नहीं है। आशय यह है कि वह प्रतिभात मिष्या होता है, जो अन्य को अर्थात् स्व में विशेषणप्रिया भाषित होनेषः ले धर्म से शून्य धन्य वस्तु को अबलम्बन करता है अंसे शुक्ति में रजताकारप्रतिभास | उक्त प्रतिभास स्व में विशेषणविधया भासित होनेवाले एक और स्थो से शून्य वस्तु का प्रवलन नहीं करता किन्तु एक और स्कूलता के आयत वस्तु का हो अवलम्बन करता है, श्रत एव यह मिथ्या नहीं है। [ परमाणुओं के संचय का ही अपरनाम अश्यवी । यदि यह कहा जाय कि "उक्त प्रतिमास संति यामी परस्पर संयुक्त परमाणुओं को अगल
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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