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________________ [ शास्त्रातील लो-१५ [ उत्पादादि के विनाभाय समर्थ ! जैसे देखिये-धौष्य के अभाव में उत्साव और ध्यय की उत्पत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि विज्ञान और पृथ्यो आदि मिशेय, इन सभी का अनुस्यूत आकार के विमा कभी प्रतिमास नहीं होता। अमाप यह है कि शाम की अथवा पृथ्वी आदि शव के उत्पाविनाश की जो बुद्धि होती है उसमें उत्पाद और बमम दोनों में एक अनुस्यताकार नियम से भासित होता है। जैसे 'मम घशानं मटम कपालसाममुत्पन्नम' एवं 'इह एटो नष्टः कपालमुत्पत्रम्' इन दो प्रतीति में पूर्व में मम शम्बार्यशाला की दो मान की उत्पति-नाश में मनुस्यूससा का और दूसरे में मार्च मलिकाको घरमाश-कपालोत्पत्ति में अनुस्यूतता का प्रयास होता है। [अनुस्यूताकार का अयमास मिथ्या नहीं है ] यदि यह कहा जाय कि-'उत्पात्र और प्यय में जो अनुस्यताकार का अबभास होता है बह बाध्य है । अतः उस प्रवमास से उत्पाद मौर व्यप में एक अनुस्यूत आकार की सिद्धि नहीं हो सकप्ती-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जिस विशेषप्रतिभास को अनुस्यताकार के प्रभास का बाधक माना जायगा बङ्ग पनि मध्य प्रतिभास से अभिन्न होगा तो मनुस्मृताकारावास का बाप होने पर बिमोष प्रतिभास का भी बाघ हो जायगा। यदि विशेषतिमास को अस्पताकारावास से भिन्ना माना जायगा तो यह रक्ष उपपल नहीं हो सकता पयोंकि धौम्य-मतिकारूप अनुस्मृताकार के प्रतिमास के बिना मत्तिका के घट पूर्वमाषी स्थास-फोश मावि विशेष सवस्था के प्रतिभास का अनुभव नहीं होता। यदि यह कहा जाय कि-"स्तु के साथ इन्द्रिय का प्रथम सनिक होने के मनश्तर अन्वयमनुस्यूताकार का प्रतिभास न होने पर भी विमोषप्रतिभास होता है"-सो यह ठीक नहीं है क्योंकि पणिय का प्रथमसनिकर्ष होने पर यह कुछ है इस रूप में निमतरेषास्थित परतु मात्र को अत्यन्त सामान्यामार में ही प्रतीति होती है। यदि इन्द्रिय का प्रथमसंनिकर्ष होते ही पास के विशेष प्राकार का भी प्रभास होगा तो वस्तु के विषय में यह सर्प है अथवा रज्जु है इस प्रकार के संकायार की उत्पत्ति हो सकेगी। क्योंकि विशेषाकार का मान संशय का विरोधी होता है। प्रतः किसी वस्तु के इन्द्रियसंनिकृष्ट होते ही यदि उसका विषहप माहीत हो जायगा सब उसके निजस्वरूप का निर्णय सो जाने में उसके विषय में संशम न हो सकेगा। [एकपाध्यासाबमूलक संशयोत्पत्ति का कथन अनुचित ] यपि यह कहा जाय कि-"वस्तु के साथ इन्द्रिय का प्रथम संस्किर्ष होने पर उसके विशेषाकार का प्रलिमास हो तो आता है किन्तु उसके उत्तरकाल में अन्य वस्तु के अतिपित साहस्य से उसमें प्रत्य अस्तु के साथ एकत्व अमेव का ज्ञान होता है और उसी कारण उसमें संशयावि की अनुभूति होती है। जैसे रग्स के साथ नियनिकर्ष होने पर रज्जुस्व का ज्ञान उत्पब होता है किानु सर्प के साम्य से उसमें 'अयं सर्पः' इस प्रकार सर्प के साथ एफरख का मानो अमेव का ज्ञान हो जाता है । इस प्रकार संनिकर्ष से रस्जुस्प की और सादर से सर्पस्व की उपस्थिति हो जाने से 'इर्य रज्जुरेष सो वा' इस प्रकार का संशम होता है ।"-किन्तु या कथन ठीक नहीं है, क्योंकि जब रस्तु का विशेषरूप एरपुरष का निश्रय पहले हो आयमा तब उसमें सप के एकत्व का अध्यवसाय हो ही नहीं सकता।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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