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हीका एवं हिन्दी विवेचन ]
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पूर्वरूपविनापा और प्रसपउत्पाद यानी अपूर्वरूपोत्पाव में ऐक्य होता है। इस प्रकार प्राक्तनरूपनाश और अपूर्षरूपोल्पासही मामग्री सम्भव होने पर भी जो लोग लायष के प्रेमी होते हुये भी कमालोत्पादकसामग्री और घटनाशकसामग्री में मेव को रुपना करते हैं उनकी विवग्यता(चतुराई) कुछ अपूर्व ही है ।योंकि प्रातम रूपनाश और अपूर्वकपोत्पाव को सामग्री के ऐक्य में स्पष्ट लापत्र होते हुये भी उसे स्वीकार नहीं करते ।। १२ ।। मूलम्-तथतदुभयाघारस्थमावं प्रौव्यमित्यपि ।
अन्यथा प्रितचाभाष एकवैकत्र किं न तत् ॥ १३ ॥ सथा, एतदुभयाधारस्वभापम् उत्पाद-व्ययाधारस्वभावात्मकम् , धौम्यम् इत्यपि इदमपि, 'तथाप्रतीतेस्तदुभयापिनाभूतम, नान्यथाभूतम्' इति योज्यते। अन्यथा उक्तानभ्युपगमे, त्रिलयामाया त्रयमपि कथाशेषमापद्यत, परस्परानुयित्वाद वितयस्प, अधिकृतान्यनराभावे सदितरामावनियमात् ।
[स्थायिता उत्पाद विनाश की अविनामाथि है ] १२ वी कारिका में 'इत्यपि' शाम के आगे तथा प्रतीत : सामयाऽविनामूतं. नान्यथासूतम्' इतना अंमा ऊपर से जोबने से इसका अर्थ यह होता है कि उत्पाद और व्यय इस उभय का आधारस्वमा प्रोग्य भी उत्पाद और व्यय वीनों का भविमाभूत-ज्याप्य है, कम बोमो के बिना सम्भव महौं है क्योंकि उत्पाबव्यय के होमे पर ही धौम्य की प्रतीति होती है। पर्थाद जिसका किसोरूप में उत्पाब पौर किलीप में उषय होता है उसी में प्रोष्य को बुद्धि होती है । भसः प्रौव्य मोनों का पाप्य है। यवि प्रीमको उत्पाद स्यय का अविनामावी न माना जायगा तो तीनों का केवल कथनमात्र हो रह बायगा-अस्तित्व सिद्ध नहीं होगा क्योंकि तीनों परम्परानुविस है। अतः अधिकृत उत्पादव्ययस्य और प्रोग्य इसमें किसी एक का अभाव होने पर मन्म का अभाव भी नियमतः प्राप्त होगा।
तथाहि-न धौथ्यध्यतिरेकेणोत्पादच्ययो संगतो, सर्पदा सर्वस्यानुस्यूताफारन्यतिरेकग विज्ञान-पृथिव्यादिकस्याऽप्रतिभासनात् । न चानुस्यूताकासबभासो पाध्यः, सहायकत्वेनाभिमतस्य विशेषप्रतिमासस्य तदात्मकत्व एकबाधेपरस्यापि बाधान, सद्यतिरिक्तत्वपक्षस्तु घाँय्यधियं मिना स्थास-कोशादिप्रतिभासाऽननुभवादनुपपषः । न च अधमाक्षसनिपातानन्तरमन्वयप्रतिभासमन्तरेण विशेषप्रतिमास एव जायत इति वाच्यम् , तदा प्रतिनियतदेशस्य वस्तुमात्रस्यैप प्रतीतः। अन्यथा तत्र रिशेपाव भासे संशयाधमुत्पत्तिप्रसक्ते, विशेषारयतेस्तविरोषित्वात् । न च तदुत्तरकालभाबिसाश्यनिमित्तैफन्याध्ययसायनियन्धने संशयाधनुभूति, प्राग विशेषावगमे एकत्याभ्यवसायस्यैवाऽसंभयात् भेदशानविरोधियान् । अनुभूयते च देशादी वस्तुनि सर्थजनसापिकी प्रान सामान्यप्रतिपत्तिा, तुदुचरफालभाविनी च विशेषावगतिः । अत एकाचप्रहा. दीना कालभेदानुपलक्षणेऽपि क्रममभ्युपयन्ति समयविदः, अवग्रहादेरी हादौ हेतुत्वात् ।