SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 80
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ [ मारा . स्त.. इको. १२ १२वीं कारिका में इस विरोध का परिहार किया गया है जो उत्पादावि का लक्षण बताकर पूर्वपक्ष में उजाषित किया था उत्पादादिलक्षणाभिधानेन पूर्वपक्षितं विरोध परिहरमाह-- मूलम्-उत्पादोऽभूतभवनं स्वत्वन्तरधर्मकम् । तथाप्रतीतियोगेन विनाशस्तविपर्ययः ॥१२॥ उत्पादोऽभूतभवनं प्रागननुभूतरूपाविर्भवनम् स्वत्वन्तरधर्मक-स्वनान्तरीयकारपर्यापनाशरूपहेत्वन्तरस्वभावम् । कुतः १ इत्याइ-तथापतीतियोगेन-अधिकृतरूपोत्पाद एवं प्राक्तनरूपनाशप्रतीतेयुक्तवान् , तदजनकस्वभाव परित्यागसमनिपनत्वात् तजननस्वभावत्वस्य । [अननुभूतरूप फा आविभाव यही उत्पाद है] उत्पाद का जो अभूतमवन लक्षण किया गया उसका अर्थ पूर्वकाल में असत् का उत्तरकाल में सत्तालाभ नहीं है किन्तु पूर्वकास में अननुभूत का उत्तरकाल में प्रादुर्भावरूप है और वह अपने नान्सरीयक-अविमाभावी प्राक्तनपर्यायनाशल्प हेस्वन्तरस्वरूप है। क्योंकि साजनस्वमाष यतः तत् के अजननस्वभाव के परित्याग का मनिपत होता है-प्रतः प्रकृत अपूर्वरूप का स्पार होने पर ही प्राक्सनरूप के नाश की प्रतीति युक्तिसंगत होती है। याशय यह है कि जब सुवर्ण घटाकार में प्रवस्थितप्रोताहेत मकट का जमक नहीं होता। मुकर का जनक तभी होता है जब मकर को अजमानस्यभाव अर्यात घटकार का परित्याग करता है। अतः जैसे सुवर्णद्ध मुकुट का एक हेतु है उसी प्रकार मुवर्ण के स्टारमक पर्याय का नाम भी त्वन्तर है। अत: प्रवकाल में अननुभूत मुकुटाकार का आविर्भावरूप मुकुटोपाव घटात्मक प्रापतन पर्याय के नामस्वरूप है। क्योंकि यदि इन दोनों में फश्चित तावात्म्य न हो तो मुकुट का उत्पाद होने पर ही घटनाश की प्रतीति होने का नियम युक्तिसंगत नहीं हो सकता। तथा, विनाशस्तविपर्ययः भूताऽभवनमन्यभवनस्वभावम् , प्रकृतरूपनाशस्वेतररूपोत्पादनान्तरीयकतानुभवात् , दीपादिनाशेऽपि तमा-पर्यायोत्पादानुभवस्य जागरुकत्वात् , एकसामग्रीन भवन्वाश तदतद्रूपनाशोत्पादयोः। ये तु लायवरणयिनोऽपि कपालोल्पादिका निर्मा सामग्रीम्, पटनाशोत्पादिकां च भिन्नामेव का पपन्ति, तेपी काचिदपूर्वव वैदग्धी ॥१६॥ [अन्यरूप में परिवर्तित हो जाना यही विनाश हैं ] इसी प्रकार पूर्वपक्ष में निमाश को उत्पाद का विपर्यय कहकर जो उसका मुसका अमवन अर्थ किया गया यह भी अन्यात्मना भवनस्वरूप है। क्योंकि सप्त का प्रभवन अर्थात प्राक्तनरूप के नाम में अपूर्वरूप की उत्पत्ति के नान्तरीयकस्व-अविनामाविश्व का अनुभव होता है। जैसे दीपादि का नाम होने पर भी अन्धकार रूप पर्याय के उत्पाद का अनुभव सर्वसम्मत है। एवं जैसे प्राक्तनरूप के नाश में श्रपूर्वकप की उत्पत्ति का अविनामाविप होने से प्रातमरूप का नाश और अपूर्वरूपोत्पार में ऐक्य होता है उसी प्रकार एक सामग्री जन्म होने से भी सबूपविनाश सानो
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy