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स्था... टीका एवं हिन्धी विवचन ]
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स्थापयितुं शक्यते । द्रव्यास्तिकोऽपि धौष्यप्रतिभासे सत्यत्यमवगन्छति, उत्पाद-व्ययप्रतिमासे त्वसत्यत्वम् । तदुक्राम्-[ सम्मति सूत्रे-१०/११]
दवद्वियवत्तव्य अवयु नियमेण होह पज्जाए। तह पञ्जयवत्धु अवस्थुमेव दबदियणयंस ॥१॥ उप्पज्जति चयंति अ भावा निअमेण पज्जयनयस्म ।
दवद्वियस्स सय्यं सया अणुप्प नमविण ॥ २॥" इति । अयं च स्वविषयपक्षपातोऽयक्तः, उभयप्रतिमासप्रामाण्यस्य तुल्ययोगक्षेमवादित्यूक्तम् । सता यात्मक यस्तु प्रभाणसः पयरसितमिति ।। ११ ।।
[अन्यनय के विषय में असल्यपन का अवधारण अयुक्त हैं ] इस तंवर्भ में यह मातव्य है कि यत: अन्यनय के विषय को गोगरूप से और अपने विषय को प्रधामरूप से ग्रहण करना हो नयों के परस्पर भेद का प्राधार है-प्रप्त: यह कहना कि
"क्यापिकनय वस्तु के उत्पाब-यय के प्रतिमास में सत्यत्व को ग्रहण करता है और प्रोग्य प्रतिभास में असत्पश्व को प्रक्षण करता है, न कि नौप्यप्रतिभास का प्रतिमेप करता है। अति बस्तु प्रतिभास में प्रोग्यविषयकस्वाभाव का ध्यवस्थापन नहीं करता है, क्योंकि वस्तुप्रतिमास में प्रोग्यविषपकस्य का अनुभव होता है । अत एव उसमें प्रौव्यविषयकस्व के अभाव का प्रतिष्ठापन उसीप्रकार शक्य नहीं है जैसे इवनस्वरुप से शुक्ति में ससस्वग्राहक एवं रजतम्' प्रतीति में 'वं न रजतम' इस प्रकार के ज्ञान से सहस्रशयकों से भी रजतस्यविषयकत्व के बाले रङ्गास्वविषयकत्व अर्थात् रजतस्वविषयकत्याभाव का प्रतिष्ठापन घावय नहीं होता। [रङ्ग-कलाई माम की बातु] [ ।
एवं व्याथिक भी वस्तु के प्रोड्यप्रतिमास में सत्यस्व को पण करता है और उत्पाद-व्यय प्रतिभास में असत्यस्य को ग्रहण करता है। जैसा कि सम्मतिका १ में १० और ११ वौं गाथा में कहा गया है कि प्रध्यास्तिक का प्रतिपाच विषष पर्यायास्तिक की दृष्टि में नियमतः प्रषस्तु है और पर्यायास्तिक का प्रतिपाय विषयव्याधिक की ष्टि में नियमेन अवस्तएवं पर्यायाथिकको ति में उसका अपना विषय वस्तु का जापावन-मयय नित्य सत्य है और प्रायास्तिक का अपना
स्तुमों का उत्गावषिमाधि प्रोध सावकालिक-संश्य है। इस प्रकार अपने विषय के प्रतिमास में सत्यत्व का प्रण और अन्य नय के विषय में प्रतिभास में असस्परब का ग्रहण ही मयों में परस्परमेव का आधार है।"
__अपने विषय में मयों के पक्षपात का द्योतक होने से प्रयुक्त है। क्योंकि वस्तु के उत्पादरमम और प्रोग्य धोनों के प्रतिभास के प्रामाण्य का योगक्षेम तुल्म है। जैसा कि पहले कहा जा चुका है किमन्य नय के प्रतिपाय विषम के असत्य होने पर अपना विषय मी असत्य हो जायगा वर्षोंकि नयों के विषय परस्पर अविनाभावी होते हैं॥११॥ रण्यास्तिकवत्तव्यमबस्तु नियमेन भवसि पर्याय: । तथा पर्ययवस्तु अवस्वेव द्रव्य पिकनयस्य ।।१।।
उपद्यन्ते पवन्ते च भावा नियमेन पवनयस्य । क्यास्तिकस्य सर्व सदाऽनुत्पतमविनष्टम् ।।२।।
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