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________________ स्पा० क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] के नीचे जलते हुये प्रदीपावि कुछ ऐसे भाव हैं जिनके उत्तरकालिक परिणाम कार्य का प्रत्यक्ष न होने से जिन्हें हेतुफलभाबी भयात्मक कहना कठिन है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उनके उत्तरकालिक परिणामों का प्रत्यक्ष न होने पर भी उसका अस्तित्व माना जाता है। अन्यथा अर्थक्रियाकारो न होने से आदि का ही अस्तित्व सिद्ध नहीं हो सकेगा । [ एक ही से हो सकती है ] इसके विशेष में यदि यह कहा जाय कि- 'शब्द-विद्युत् प्रादि प्रत्यक्ष है और उनके परिणाम परोक्ष हैं, अतः इन दोनों में ऐक्य नहीं माना जा सकता तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे स्थूलतया प्रत्यक्ष अवासित होनेवाली वस्तु का पारिमाण्डल्य यानी श्रणुपरिमाणादि अंश परोक्ष होता है एवं साम और ज्ञेय के प्रत्यक्ष होने पर भी उनका मेव परोक्ष होता है। उसी प्रकार पश्य प्रत्यक वस्तु को भी किसी रूप से परोक्ष मानने में कोई विरोध नहीं है। इसलिये शब्द - विद्युत् प्रावि पदार्थो की स्वरूप से प्रत्यक्ष और परिणामाममा परोक्ष माना जा सकता है। ७१ यदि यह कहा जाय कि 'अणुपरिमाणादि का दृष्टान्त अनुपयुक्त है क्योंकि अपरावि पवार्थ के रूप में प्रत्यक्ष है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उनको प्रस्थता अनुभूत न होने पर भी वनमात्र से उन्हें प्रत्यक्ष कहा जायगा तो शभ्यादि के उत्तरकालिक परिणाम को भी बचन मात्र से प्रत्यक्ष कहा जा सकता है। यह भी ज्ञातव्य है कि विद्युत आदि को उनके परिणामों के द्वारा हेतुफलोभयात्मक मानने में कठिनाई होने पर भी उनके उपाधानों के द्वारा उन्हें हेतुफलभावास्मक कहा ही जा सकता है, क्योंकि शब्दाधि की उत्पत्ति उपादान के बिना मुक्तिसङ्गत नहीं हो सकती। सः अपने उपादानों के साथ उनका ऐश्य होने से उनकी भी हेतु-फल भावात्मकता स्पष्ट है। यह कहा जाय कि 'उसकी उत्पत्ति विना उपादान के हो होती है" तो यह ठीक नहीं हो सकता क्योंकि उपादान के बिना उत्पति मानने पर सुप्त मनुष्य के प्रबुद्ध होने पर जो उसे बुद्धि होती है उसे भी निरुपवान कहा जा सकता है, जिसके स्वरूप सुप्तावस्था में अमाकार बुद्धि के अस्तित्व मानने का प्रयोजन समाप्त हो सकता है। नाषि निरन्दया संततिविचित्तिः, चरमक्षणस्याऽकिश्चित्करत्वेनावस्तु पूर्वपूर्वणानामपि तावापत्ती सकलसंवत्यभावप्रसतेरिति । तस्माद् दृष्टस्याप्यर्थस्य पारिमाण्डन्यादेः, प्रायाकारविवेकादेवशम्य यथाऽष्टत्वं तथोत्य स्वभावस्यापि कस्यचिदशम्यानुत्पलम् । इति सिद्धं चौत्र्यम् | [ निरन्वय संततिविच्छेद असंभव है ] उक्त रोति से जैसे लॉथ्य के बिना उत्पाद को उपपत्ति नहीं होती, उसी प्रकार विनाश की भी उपपत्ति नहीं हो सकती, क्योंकि घटावि के संतान का मुद्गराभिघात के बाद जो विन्देव होता है उसे रिम्य किसी पदार्थ श्रमाश्रित नहीं माना आ सकता क्योंकि यदि सन्तान का निरश्वध नारा माना जायेगा तो उसका अर्थ होगा कि सन्तानघटक अश्लिमक्षण किसी कार्य का उपादान नहीं होता । उपादान न होने पर अर्थशियाकारित्व से ग्रन्थ होने के कारण वह अवस्तु-असत् हो जायेगा और उसके घर होने पर पूर्व पूर्वजण में भी प्रसव को पत्ति होने से पूरे सलाम के अभाव की
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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