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[ शास्त्रमा स्त० ७ १लो० १३
आपत्ति होगी : प्रसः शंसे दृष्ट भी स्थूल पदार्थ का परिमाण्यादि अंग अष्ट होता है और ज्ञान तथा प्रा के प्रत्यक्ष होने पर भी उनके ऐक्य में बिनाबदर्शन के अनुरोध से उन दोनों का परस्परमेव अदृष्ट होता है उसी प्रकार उत्पन्नस्वभाव भी वस्तु का कोई अंश अनुत्पन्न हो सकता है 1 तो इस प्रकार नष्ट और उत्पन्न होने वाले पदार्थ का जो अंगा अष्ट और अनुस्पक्ष होता है यही भूष है इस प्रकार उत्पाद व्यय के उपपावक्ररूप में भव्य को सिद्धि अनिवार्य है।
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उत्पादव्ययव्यतिरेकेण धन्यमप्यसंगतम् । तथाहि - १. 'दुधादौ दध्यादिकं सदेव' इति सांख्यः दुग्धादेरेव दष्यादिरूपेण व्यवस्थितत्वात् । २. 'तदव्यतिरिक्तं विकारमात्रमेव कार्यम्' इति सांख्यविशेषः । ३. 'न कार्य कारणे प्रागस्ति, किंतु समः पृथग्भूतमेष सामप्रीतो भवति, न तु कारणमेव कार्यरूपेण व्यवतिष्ठसे परिणमते या' इति वैशेषिकादयः । ४. 'न च फार्य कारणं वाति मतमात्रमेव सभ्यम्' इस्यपरः ।
[ उत्पाद-व्यय के विना स्थिरता का संभव नहीं ] केशर नहीं उत्पाद और व्यय के fare श्री भी युक्तिसङ्गत नहीं हो सकता। इस संदर्भ में विभिन्न दार्शनिक सिद्धान्तों का आलोचन करने पर अन्ततः यही निष्कर्ष प्राप्त होता है। जैसे १. सोल्व का मत है कि तुम्बादि में वहाँ आणि विद्यमान ही रहता है, क्रियाविशेष से म्यादि ही वहीं आदि के रूप में उपलभ्य होता है । २. स के एक का मत है कि कार्य ऐसा भी होता है जो कारण से अव्यतिरिक्त होते हुये स्वयं विकार हो होता है अर्थात् तस्वाम्लर का उपादान नहीं होता। ३. वैशेषिकादि का यह सिद्धांत है कि कार्य पहले से कारण में विद्यमान नहीं रहता किन्तु चारण से सर्वथा भिन्न होता है जो कारणलामी से प्रादुर्भूत होता है. कारण ही कार्यरूप में व्यवस्थित अथवा परिणत नहीं होता । ४. अतवादी का सिद्धान्त है कि कार्य और कारण का अस्तित्व ही नहीं है- नित्य मात्र ही पारमार्थिक तत्व है।
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सत्र 'दुग्धादों दध्यादिकं संदेव' इति सांख्यमते कारणव्यापारफल्यम् । न हि तेन कार्योत्पत्तिः, तदभिव्यक्तिः, आचरणविनाशो वा कतु शभ्यते, तदुत्पत्त्यभिव्यस्त्योरपि सम्वे कारक यापार कल्यात असध्येऽपसिद्धान्तात् । आदरणविनाशेऽपि न तत्साफल्यम्, असतो भावस्पोत्पादवत् सुती भावस्य नाशाभावान् । न चान्धकारवत् तदावारकं तदा किचिदुपल*यते । न कारणमेव कार्याचारकम् तस्य तदुपकारकत्वेन प्रसिद्धेः । किया, अन्धकारवत् तदर्शनप्रतिबन्धकत्वेन तदावारकत्वे तददर्शनेऽपि तत्स्पर्शोपलम्भप्रसङ्गः । पटादिषद् व्यवधायकत्वेन तदावारकत्वे च तद्ध्वंस इव मृत्पिण्डध्वंसेऽपि तदुपलब्धिप्रसङ्गः । क्षीर-नीरादिवदात्यतिसंश्लेषेण तदाचाररवे च वयग्भावं विना तदनुपलब्धिसङ्गः । अपि च, कारणकाले कार्यस्य सच्ये स्वकाल इव कथमसों (न) तेनात्रियते ? कथं च मृत्पिण्डकार्यतया घटी व्यपदिश्यते, न लभ्यथा, पटादिपत् असच्चे च नातिः अविद्यमानत्वादप सिद्धान्तथ । विवेचितं चेदं चाक वार्तायाम् । निरस्तव सत्कार्यवादः सांख्यवार्तायाम् । इति न किञ्चिदेतत् ।