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याक टीका एवं हिन्दी विवेचन ]
[ सांख्य के सत्कार्यवाद की समालोचना ] इन मतों में, दुग्धादि में वध्यादि पहले से ही विद्यमान रहता है-इस सांत्यमत में कारणव्यापार को मिष्फलता प्रसस्त होती है क्योंकि कारणव्यापार से न कार्य की उत्पत्ति हो सकती है और न कार्य की अभिव्यक्ति हो सकती है, न सो कार्य के प्रावरण का विनाश ही हो समाता है क्योंकि उत्पति और अभिव्यक्ति भी यदि पहले से सच होगी तो कारकम्यापार निष्फल होगा। यदि मसत होगी तो 'असन्त सा नहीं होता इस साल्पासिद्धारत का भय होगा। प्रावरणविनाश मामले पर भोकारकण्यापार को सफलता सिद्ध नहीं हो सकती। क्योंकि जैसे असब भाव की उत्पत्ति नहीं होती इलीप्रकार सह भाव का नाश भी नहीं हो सकता, इसलिये कार्य का प्रावरण सत होने पर कारकव्यापार से उसका नाम नहीं हो सकता और असत् होने पर उसका अभाव स्वतः सिद्ध होने से उसके विनाय की कल्पना निरर्थक होती है। पूसरी बात यह है कि जैसे प्रकार किसी वस्तु का भावारक होता है उस प्रकार काम का हो वारक नहीं पास होनाकर जाम कारण ही कार्य का पायारक होता है तो यह अमित नहीं हो सकता क्योंकि कारण कार्य के उपकारकरूप में प्रसिध है, प्रत एवं उसे आवरणरूप में उसका अपकारक नहीं माना जा सकता।
। सत्मार्यपक्ष में आवरण की अनुपपत्ति ] दूसरी बात यह है कि कारण यदि कार्य का भावारक होगा तो अप्रकार के समान उसके वर्शन का हो प्रतिपन्धक होगा, अतः कारकव्यापार के पूर्व कार्य का वर्शन न हो किन्तु उसका स्पाशैन उपालम्म तो होना ही चाहिए। यदि यह कहा जाय कि कारग मन्प्रकार के समान कार्य वर्शन के प्रतिबन्धकरूप में कार्य का आवारक नहीं होता अपितु पटादि के समान श्यश्चायक (व्यवधानकारफ) रूप में कार्य का आधारक होता है तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि जैसे पूर्व में पट से प्यवहित वस्तु का, पट का नाश होमे पर उपलम्म होता है, उसीप्रकार मपिटमा ध्वंस होने पर घट के मारपस्वरूप आपरण का ध्वस हो जाने से कुलालम्पपाराधिन होने पर भी घर के उपसम्म की प्रसक्ति होगी । यवि यह कहा जाय कि जसे शोर और नौर में प्रात्यन्तिक संमिश्नरा होने से वे दोनों एक दूसरे के आधार के होते हैं उसी प्रकार फार्म और कारण भी परस्पर में आत्यन्तिक संमिश्रण के नाते एक दूसरे के साबारक होते हैं तो यह भी ठीक नहीं है क्योंकि ऐसा मानने पर दोनों के पार्थक्य = विभाजन हुये विना कार्य और सारण दोनों की अनुपलधि पी भापति होगी।
इसके साथ हो यह विचारणीय है कि यनि कारणकाल में कारणष्यापार के पूर्व भी कार्य की सत्ता है तो कारणमापार के पूर्व कारण से कार्य का माघरपा होता है उसी प्रकार कारणम्पापार के बाद भी कारण से कार्य का माधरण क्यों नहीं होता। साथ हो मस्पिड के कार्यरूप में घट का व्यवहार क्यों होता है ? पटादि की तरह उसके अकार्यरूप में व्यवहार क्यों नहीं होता? यदि यह कहा जाय कि कारणकाल में कार्य का सत्व न होने से कार्य का प्रावरण होता है- तो यह ठीक नहीं है क्योंकि जब कार्य कारण काल में होगा ही नहीं तो उसके आवरण को क्या प्रावस्यकता होगी? क्योंकि विरमान के दर्शन का प्रतिबन्ध करने के लिये ही प्रावरण की बावश्यकता होती है। दूसरी बात मह कि यदि कारणकास में कार्य को प्रसतु माना जायगा सो सांख्य के लिये अपसिद्धारत होगा ! कारणकाल में कार्य के प्रसव के विश्व यहां कुछ विशेष कहने की आवश्यकता नहीं क्योंकि चाक