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________________ [ शास्त्रवास ०७०१३ पक्ष की वार्ता में विस्तार से इस पक्ष का विवेचन किया जा चुका है। सांख्य मत के सम्बन्ध में वार्ता करते समय सहकार्यवात का भी निराश किया जा सका है अतः उस विषय की भी यहाँ औौर वर्षा करना आवश्यक नहीं है । لی एवं चानर्थान्तरभूतपरिणामवादोऽपि प्रतिक्षिप्त एव । न श्रर्थान्तरपरिणामाभावे परिणाम्पेर फारणलचणोऽर्थं एको युज्यते, पूर्वापरयोरेकत्वविरोधात् । न च परिणामानतिरेके परिणामित्वमपि व्यवतिष्ठते विशेषणव्यवस्थाधीनत्वाद विशिष्टव्यवस्थायाः । न ह्यं कमेव विशेषणं विशेष्यं च इति न किचिदेतत् । [ अभेदपक्ष में परिणाम परिणामिभाव की अनुपपत्ति ] जो लोग कार्य को कारण का अनर्थान्तरभूत यानी अभिन्न परिणाम मानते हैं उनका मत भी अनायास हो निरस्त हो जाता है क्योंकि यदि परिणाम को कारण से अथन्तिर यानी कथमपि मित्र न माना जायगा तो परिणामी कारण और परिणामरूप कार्य ये दोनों अभि न हो सकेंगे। क्योंकि कारण पूर्वकालिक होता है और परिणाम कार्य उत्तरकालिक होता है अतः उनका अभिन्नत्व • एकएव विवश है। प कारण और परिणाम में भेद न मानने पर कारण में परिणामित्व भी सिद्ध नहीं हो सकता क्योंकि परिणाम विशेषण है और कारण परिणाम से विशिष्ट होता है अतः कारण का परिणाम उन बोनों में भेव मानने पर ही उपपन हो सकता है क्योंकि विशिष्ट को सिद्धि विशेषण से भिन्न विशेष्य की सिद्धि के अधीन होती है। एक ही वस्तु विशेषणविशेष्य दोनों नहीं हो सकती एष परिणाम यह कारण से सर्वषा अनर्थान्तरभूत अभिश होता है यह मत श्रत्यन्त सुच्छ है । यपि कारणा कार्यमन्यन्त पृथग्भूतमेत्र, तदाश्रिनत्वेन तस्योत्पत्तेश्व न पृथगुपलम्भः ' इति वैशेषिकादीनां मतम्। तदपि समवायनिपेधात् अन्यस्य च संबन्धस्याभावादनुपपणमेव । क्रि, अवयवेभ्योऽवयविन एकान्तभेदे एकदेशमै सर्वस्य रागः स्थान, एकदेशावर , सर्वस्वारणं भवेत् रक्ता रक्तयोरावृतानामृतयो भवभ्युपगमेकस्यात् । यस् 'एकस्मिन् मैदानाचे सौशब्दप्रयोगानुपपत्तिः' इत्युपोतकरेणोक्तम् तत्तु स्वतस्त्रं स्त्रीपघाताव' इति न्यायमनुसृतम् अवयवानामवयवभाव एवं सर्व रक्तम्' 'किञ्चित् वस्त्रं रक्तम् इति त्रिलोकव्यवहारसिद्धेः । न वस्त्रपदस्य वस्त्रावयचे लक्षणया तत्र सर्वपदप्रयोगानुपपत्तिर्भेति वाच्यम् । असल चित्यात् तत्प्रयोगस्य । [ कार्यकारणभेदवादी वैशेषिकमत की समालोचना ] वैशेषिक आदि का यह मत है कि- "कार्य कारण से प्रत्यन्त भिन्न होता है, किन्तु इसको उपसि समवायिकारण में ही होती है, मतः कारण से पृथक उसका उपलम्भ नहीं होता" - किन्तु यह मत भी ठीक नहीं है क्योंकि यह मत समवायसम्बाध को मान्यता पर अवलस्थित है और समचाय का निषेध किया जा चुका है। एवं प्रभेद से अन्य दूसरा कोई सम्बन्ध तो नहीं बन सकता
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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