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मा.
डौका एक हिमी विवेचन ]
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अतः पह मत सर्वत्र अनुपपन्न है। इस मस में दूसरा बोष यह है कि मवयवी को अवयों से भरयास भिन्न मानने पर किसी एक अवयम में रक्तत्व होने पर सम्पूर्ण अवस्वी में रहता हो कामे की प्राप्ति होगी, एवं किसो एक प्रत्यक्ष का आवरण होने पर पूरे अवयवी को पावरण की आपत्ति होगी। क्योंकि वोषिक के मतानुसार रक्त एवं परत तया मायूत एवं ममावृत अवयवी में ऐक्य है ।
[उघोतकर के मत का निराकरण ] इस चर्चा के संदर्भ में उद्योतकर ने जो यह कहा है कि-पपयधी के एक होने से उसमें भेदन होने के कारण सर्व शब्द का प्रयोग मानुपपन्न है अर्थात अवमयी एक है मौर सशन का प्रयोग अमेकानियत है पता पधी के विषय में 'एक वेयर में रकम होने पर सब में रक्तब हो जामगा' इसप्रकार का प्रयोग अनुपपन है।"-पायाकार के कयमानुसार उद्योतकर का यह कथन अपने शस्त्र से अपना वध करने के समान है। क्योंकि अपयकों के अवपषी से अभिन्न होने पर ही 'सर्व वस्त्र रक्तम्'-पूरा वस्त्र रक्त हो गया, 'किधि वस्नं रक्तम्-वस्त्र कुछ अंश में ही रक्तहमा इस विषिष लोकव्यवहार की सिद्धि होती है। कि उद्योतकर का उत कपन प्रबयबी को इस कोकव्यवहार के लिये अयोग्य सिजकर देता है।
परि यह कहर जाय कि-'उक्त व्यवहार में वस्त्र पद को पात्रावयब में लक्षसा होने से सर्वपत्र के प्रयोग की अनुपपत्ति नहीं होती'-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि उक्त प्रयोग प्रासलवपृत्ति है. भयदि उस में मुख्य वृत्ति अभिधा' का सिलम नहीं माना जाता। अर्थात् यह प्रयोग मुख्य है। प्रत एव लाणा से उसका उपपावन उचित नहीं हो सकता।
यदपि शङ्करस्वामिनोक्तम्-'वस्त्रस्य रागा फुदकुमादिद्रष्येण संयोग उत्पते, स चाऽच्याप्यवृत्तिः, तत एका रक्ते न सर्वस्प रागः, न च शरीरादेरेफदेशावरणे सर्वस्यावरणं युक्तम्' इति । तदप्ययुक्तम् , पटादेनिरंशस्यैकद्रव्यस्य कुमादिना व्याप्ता-श्याभांशाभावेन तत्र संयोगाऽव्याप्यवसित्वस्याऽसंभवदुक्तिकत्वात् । तदारम्भकाययवस्यैव रक्तव्ये श्य न तस्य किश्चिदश्याप्यवृतित्वं नाम, अश्यवं व्याप्यय रागस्य से, अचययिनचाऽरफ्तस्यादेव न च स्यादयविनि रक्तन्यप्रतीतिः ।
[अभयपी के विषय में मांकर स्वामी मन की समालोचना] संकरस्वामी ने इस विचार के संदर्भ में जो ग्रह कहा कि-'स्त्र का पुनमावि ध्य के साथ जो संयोग होता है उसी को वस्त्र का रक्तत्व कहा जाता है, अतः संयोगात्मक होने से रक्तस्त्र अध्यायति है। अल एव एक भाग के रत्त होने पर सब में रकता नहीं हो सकती। इसी प्रकार शरीरावि के एषा वेश में आयरण होने पर सब का प्रावण भी पुलिसङ्गत महीं हो सकता क्योंकि आवरण भी आवारकप का संयोग रूप होने से अश्याप्यवृत्ति है।'-हिम्तु यह कथन भी मुक्तिसङ्गत नहीं है क्योंकि पट आपि एक निरंका व्रम्प है। अतः यस मामि से ग्याप्स मोर अम्माप्त अंश की कल्पना सम्भव न होने से उसमें संयोप को अध्याप्त कहना असम्भव है। यदि पट आदि के प्रारम्भक अवयवों को ही रक्त कहा जाय तो रक्तरंग में किसी प्रकार का भग्याम्यवृतित्व उपपन्न न हो सकेगा क्योंकि रंग अवयव को अमाप्त करके विद्यमान होता है। दूसरी