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________________ [पास्त्रातील लो०३ दूसरा विकल्प नो स्वीकार्य नहीं हो सकता क्योंकि एक गोपिण्ड में गोत्व मिस स्वभाव से रहेगा यदि जस स्वभाव से भिन्न अन्य स्वभाव से दूसरे पिण्ड में रहेगा तो गोत्व में अनेक स्वभाव का सम्बन्ध होने से अनेकत्व को आपत्ति होगी । कहने का मामय यह है कि यदि उन दोनों स्वमावों का आश्रय एक होगा तो धर्म और धर्मी में प्रमेव होने से जन स्वभाव में भेव न हो सकेगा । अतः एक स्वभाव से सामान्य में एकापिण्यांतता का और अन्यस्थमा से पिण्डातरवत्तिता का नियमम नहीं हो सकेगा । प्रतः स्वभावों में भेव की उपपति के लिए सामान्य में भेद मामना पावश्यक होगा। एतेन "पिलम गोबुद्धिरेगीवानवाना। भामाशरूपाभ्याकगण्डिधुद्धिवत् ॥४४ ।। न शायलेयाद् गोबुद्भिस्तनोऽन्यालम्बनापि वा। तदभावेऽपि गदाबाद् घटे पार्थिवृद्धियन् ॥४॥ प्रत्येकसमवेताविषया बापि गोमनिः । प्रत्येक कृत्स्नरूपत्वात प्रत्येकन्यक्तियुद्भिवत् ।। ४६ ।। प्रत्येकस मेवनापि जातिरफैकबुद्धितः । न बनविय शम्या त्राक्षणादि निवर्तनम् ॥ ४७ ।। नेकरूपा मत्तिर्गोत्वे मिथ्या बक्ने च शक्यते | नापि कारणदोषोऽस्ति माधकः प्रापयोऽपि वा ॥४॥ इत्यादि [ श्लो० वा. वनवाई ] कुमारिलोसमपास्तम्, उक्तरीत्या स्फुटदोषत्वात् । [कुमारीलभट्टकृत सामान्यनिरूपण का निरसन ] ध्यारयाकार ने इस संवों में सामान्य साधन के प्रसकी कुमारीलभद्र की पोचकारिकाओं का उल्लेख कर उनके कथन में भी उक्तरीति से घोषयुक्तता को स्फुट कर उसे निरस्त कर दिया है। [1] भट्ट को उन कारिकाओं में प्रथम कारिका से विभिन्न गोपण्डिों में होने वाली गोबुद्धि में एकगोस्व-निमित्तकत्व का साधन किया गया है। भट्टामिमत अनुमान प्रयोग इस प्रकार है-विभिन्न गोपिण्डों में होनेवाली गोद्धि (एफगोत्य निमित्तक है अर्थात स्वप्रकारकस्म, स्वमिन गोरक्षप्रकारकात्रसम्बयाप्रच्छिनप्रतियोगिताक स्वाभाववस्व' इस उभयसम्बन्ध से गोस्ववत है। (हेतु-) क्योंकि गोवटि है अथवा (२) एकरूप है अर्थात एकानुषिक शब्ध से अभिलास्प है। जैसे एक गोपिण्ड व्यक्ति में गोवुद्धि । आशय यह है कि जिन के मत में गोस्व निखिल मोपिण्डों में रहनेवाला एक सामाश्यरूप नहीं है किन्तु स्वाश्रयस्वरूप है प्रषया एकव्यक्तिमात्रवृत्ति धर्म है उनके मत में भी एक गोपिण्डविषयकवधि में उक्त उममसम्बन्ध से गोत्व है। क्योंकि उनके मत में भी उस अति में एक ही गोत्व प्रकार है । प्रतः मोस्व का स्वप्रकारकर सम्बन्ध और स्वभिन्नगोस्वप्रकारकरषसम्बन्धविन्नतियोगिताकस्वाभाववस्व सम्मन्ध विद्यमान है। अब यदि इन दोनों सम्बन्धी से विभिन्न गोपिण्डों में होनेवाली गोबदि में गोश्व का साधन किया जाय तो सकन गो में एक ही गोस्व सिस होगा। क्योंकि सफल गो में एक ही गोत्व मानमे पर म्वभित्रगोत्वप्रकारकरव घटस्वाति का ही सम्बन्ध होता है.गोरष का तो व्यधिकरण सम्बन्ध हो पाता है। प्रत उस सम्बन्ध से गोस्व का अभाव गोरखप्रकार. .कमुद्धि में रह सकता है। और गोत्य को अनेक मानने पर उस बुधि में उक्त उमयसम्बन्ध से गोष की सिडनीती। १. शोकवातिकमुद्रितपुस्तके 'तस्मात् पिण्टे गु गो' इति पारः। २. लोक. 'क्तेष्वपि वा' १३ श्लोक. 'नात्र का'।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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