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________________ स्पाटीका एवं तिन [२] वूसरी फारिका से भट्ट ने अनेक गोषिणों में होने वाली एक गोवृद्धि की सदशगोविषयत्व से उपपत्ति का निराकरण किया है। आशम यह है-कि अनेक गोपिच्छों में होने वाली गोवृद्धि का घि उस बुझि को एकवर्ण के गोपियों को निमित माम कर यदि उपपति की जाम, तो यह मी सम्भव नहीं है क्योंकि अनेक पोपिक में गोबद्ध किसी एक ही वर्ग के प्रनेक गोपिण्ड में नहीं होती किन्तु विभिन्नवर्ण के गोपियों में भी होती है। इसीलिये जैसे वामलेय -चित्र गोरूप निमित्त से अनेक गोपिण्डों में एक गोपद्धि की उपपत्ति नहीं की जा सकती इसी प्रकार चित्र से अन्य शुक्लावियों के गोको निमिसमानकर भी उस विकी उपपस नहीं की जा सकती क्योंकि यह धुद्धि चित्र गोपिण्ड में भी होती है। इस निराकरणका आधार..'जो दिया अनेक व्यक्तिओं में होती है बहदि ताशयक्तिनिमितका होती है इस नियम का पयभिचार है, जो-विभिन्नवों के घटों में होने वाली पाथिक वृद्धि में इष्ट है क्योंकि वह बुद्धि भी समानवर्णव मिमिस नहीं होती। [३] तीसरी कारिका में गोवुद्धि में प्रत्येक में समझायसम्बन्ध से परिसमाप्तार्थविषकाप का साधन करके यह बताया गया है कि यिभित्र गोपिण्डों में जो गोपद्धि होती है उसमें विशेषणविधया भासित होने वाला गोख प्रत्येक गोष्यक्ति में समवायसम्बन्ध ले परिसमाप्त होता है । अनुमान प्रयोग इस प्रकार है-विभिन्न गोपिण्डों में होने वाली गोबुधि प्रत्येक गोपिण्ड समवापसम्बाप से परिसमाप्त अर्थ को विषय करती है क्योंकि प्रत्येक पिण्ध में पूर्णाकारतया अनुभूस होती है। प्रति एक गोव्यक्ति को देखने पर भी 'गां पूर्णामनुभवामि गाय को पूर्ण रूप में देखता हूँ इस प्रकार का प्रनुभव होता है। और यह नियम है-जो बुद्धि प्रत्येक में पूर्णकार होती है वह प्रत्येक में समवेतार्य को विषष करती है। जैसे एक एक रुपक्ति की बुद्धि, अर्थात् 'यह एक है इस प्रकार की बुनि। [४] चौथो कारिका में प्रत्येक गोपिज़ में समयाघसम्बन्ध से परिसमाप्त भी गोरक में एकस्वबुद्धि से एकस्व का साधन किया गया है। अनुमान प्रयोग इस प्रकार है-प्रति गोपिस में समयेत गोश्व एक हैपयोंकि प्रति गोपिण्ड में एकत्वेन जात होता है। जैसे नञ्युक्त अर्थात् 'वादि बाह्मणः' इस वाक्य में अब्राह्मण पब से एक एक गुनावि में परिसमाप्त प्रतीत होनेवाला बागमेव विभिनाश्रयों में एकस्येम शायमान होने से एक होता है। [५] पांचवी कारिका में गोस्व में एकत्वमद्धि के मिष्याय का यह कहकर निराकरण किया गया है कि मिथ्यास्त्र की सिद्धि कारणोष अथवा मापक प्रत्यय ले होती है किन्न गोत्व में जो एकरव मुखि होती है उसमें कोई कारणदोष नहीं है और न उसका कोई बाधक प्रत्यम है। इन कारिकामों से कुमारील ने सामान्य को सिद्ध करने का भी प्रयास किया है वह पूर्वोक्त दोषों से निरस्त हो जाता है। इथं च कार्यकारणनायवच्छेदकतया जातिसिद्धिरप्यपास्ता, कार्य-कारणयोः कथंचिदश्येमापि कार्यकारणभावनिर्वाहात् । किंच, एवं गगनादौ सप्लायर्या मानमन्वेपणीयं स्यादायुष्मता; ट्यजन्यतावच्छेदकतया सिदस्य सत्त्वस्य नत्राभावात् । न च द्रयवादिना साकभिया तत्र सत्तास्वीकार, सत्तया तयाऽपरिवानात् । न योपाधिमाफर्यस्येव जातिसक्रियस्यापि दोपत्ये बीजमस्ति । 'जात्योः साकये गोवा-ऽश्वत्वयोरपि सथात्वापत्तिस्तदोपल्वे वीजमिति
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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