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________________ [शास्त्रमा सलो. चेत् ? नआपादफाभावात् । न हि संकीर्ण योजातिवं गोत्वाऽश्वत्वसामानाधिकरण्येन व्याप्तम् । 'तथापि शक्का भविष्यतीति येत ? सा यदि स्वरसवाहिनी, तदा लोकयात्रामात्रोल्लेदकतया न दोषाय । यदि व जातित्वसाधारणधर्मदर्शनजन्या, तदा प्रत्यक्षायां गत्रि विरोषावधारणादेव निवर्तते अन्यथोपाधिसॉकर्यदर्शनजन्या सास्नाकेसरादिसाफर्यशंका दुरुच्छ व स्यात् । ". . [ कार्यतादि के अवच्छेदकतया जातिसिद्धि अशक्य ] कार्यता और कारणताबि के अबश्वक रूप से भी जाति को सिशि नहीं हो सकती है। क्योंकिकार्य और कारण में कात्रिय ऐपय मानकर कार्य-कारणभाव का निर्वाह कर सकते। अर्यात चित सप्तरकायस्य को तसारा पा मकर -पानी कारणता की भापत्ति का परिहार किया जा सकता है । दूसरी बात यह है कि यदि पवायों के लव हो उपपत्ति यदि सत्ता के समवाय से की जायगी तो गगनाविका सत्व सिद्ध करने के लिये सामान्यपादीको प्रमाणातर का प्रग्वेषण करना होगा, क्योंकि 'समवायसम्बन्ध से जन्य सत के प्रति तावात्म्यसम्बध से प्रध्य कारण होता है इस कार्यकारणभाष के आधार पर यजम्यताबष्टककातयः सत्ता सिद्ध होती है। अतः पजन्य गणतादि में उसका समचाय नहीं हो सकता। यषि यह कहा बाय कि-"गगनादि में सत्ता न मानने पर ससा में ब्रम्बस्व का सांकर्य हो जायगा, अतः गगनधि में भी सत्ता मानना मासयम है"..तो यह ठीक नहीं है क्योंकि सत्ता को साफर्य भम का शान मा। है जिससे वह सोकर्य से मौत होकर गगनादि में रहने लग जाय । इसके अतिरिक्त एक दूसरी बात यह है कि असे उपाधिसकिय वोष नहीं होता उसी प्रकार जातिसाकर्य को भी दोष मानने में कोई बीज नहीं है। यदि यह कहा आप कि-जाति में सांस मानने पर गोस्व-प्रावाव में भी सांपर्य को प्रारत्ति होगी मतः यह मापति ही जातिसौकर्म में बोषरा का बीज है-तो यह ठीक नहीं है क्योंकि गोस्व-प्रश्वत्व में सकिय का कोई आपावक मही है। कारण, 'लंकीर्णप्तिजातित्व में गोस्व-अश्वष का सामानाधिकरपय हो ऐतो व्याप्ति नहीं है। यदि यह कहा जाय कि संकीर्णनिष्ठ आतित्व में गोस्व । आवत्व के सामामाथिकरण्य की व्यारित न होने में आपत्ति न हो किंतु गोत्व-अबव में परस्पर सामानाधिकरय की शंका हो समाती है, तो यह नहीं है क्योंकि यह शंफा यवि स्वाभाविक मानी जायगी तो ऐसी शंका सर्वत्र सम्भव होने से लोक मात्रा मात्र का उच्छर हो जायगा, आहार में प्राणघातकरम की शंका होने से जीविता की माहार प्रहए में प्रवृत्ति न हो सकेगी। इसप्रकार सर्व प्रवृत्ति के लोप का प्रसङ्ग होगा। यदि यह कहा कार कि 'उक्त का स्वाभाविक नहीं है किन्तु जातित्व जो पृथ्वोश्व और व्यत्य में सामानाधिकरण समानाधिकरण है एवं घटव और पटव में असामानाधिकरग्य का समानाधिकरण है उनके चंग से गोत्व और सावन में सामानाधिकरण्यासी शंफा हो सकती है तो यह ठीक नहीं है क्योंकि प्रत्यक्ष गो में गोश्व और मश्वस्व में पश्यत्वाऽसामानाधिकरण्यरूप विरोधका निश्चय होने से उसी से उन में सामानाधिकरण्यशका का प्रतिबन्ध हो जाममा । मवि ऐसा नहीं माना जाता तो भूतस्व. मूर्तस्वादि उपाधिनों में सांकर्य के वाम से सास्नाविमत्य और केसरादिमत्त्वरूप उपाधिक्षों में भी सकियशंका का परिहार असम्भव होगा। अश्व जात्योः परस्परविरहसमानाधिकरणत्वस्य परस्परविरहल्याप्यतावच्छेदकवाद पर
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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