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________________ स्वा.क० टीका एवं हिन्दी विवेचन ] स्परविरहसमानाधिकरणों धर्मों यदि जाती स्याता, परस्परविरहव्याप्यों स्यातामिति पाचकमिति वेत् १ न, परस्परविरहसमानाधिकरणत्वस्यकस्याभावेन गोवाभावसमानाधिकरणत्वे गोत्वसमानाधिकरणास्यन्मायागोमिवादिषश्वपाद तावाद या कल्पनीयमिति न संकीर्णयोस्तथात्वम् , मानाभावान, खमानाधिकरण्यग्राहकमानविरोधाश्च । [सकर्य जाति में वाधक नहीं हो सकता ] पति यह कहा जाय कि जातियों में जो परस्पराभावसामानाधिकरप्य होता है वह परस्पराभाष का व्याप्यतावच्छनक होता है। जैसे गीत्व और प्रश्वत्व जाति में परम्परामाषका सामानाभिभारण्य है और वह परस्परामाव का ग्याप्यतावच्छेवक भी है, क्योंकि परस्पराभाव की समानाषिपारण उक्त दोनों जाति परस्परामाव की कमाप्य है। इसप्रकार यह पापत्ति हो सकती है कि परस्परामाष के समानाधिकरण कोई भी वो धर्म पवि जातिल्प होंगे सो परस्परामाष के व्याप्य हगि । फलसः, पल आपत्ति ही संकीर्ण पो के अर्थात् परस्परविरहसमानाधिकरण होते हमे परस्परसमा. माधिकरण धर्म के मातित्व में बाधक-तो यह ठीक नहीं है। क्योंकि गोत्व प्रौर बावरण में जो परस्पराभावसामानाधिकरण है वह एक नहीं है क्योंकि गोस्वनिष्ठ अश्वत्थामाव का सामानाधिकरण्य अश्वस्वाभावाधिकारणपत्सित्वरूप है। अत: यह अश्वत्वामावाधिकरण गोस्वरूप निरूपक के मेव से मिन एवं अश्वस्व में ओ गोस्वाभावसामानाधिकरण्यागोत्वामायाधिकरणापनि असिस्वरूप है। अतः वह भी अपवरूप निरूपक के मेव से भिन्न है। इसलिये उनमें कोई भी परस्पराभाव का पाप्यताषणदेवक नहीं है किन्तु अश्वत्व में गोरखविरोपिता और गोस्व में अश्वत्यधिरोषिक्षा का अवच्छेवक रहता है और यह कम से गस्वाभावाप्तमानाधिकरणावे सति मोरवसमानाधिकरणाक्ष्यतामाक्प्रतियोगित्व, एवं अश्वत्थामाबसमानाधिकरणाचे सति प्रश्वत्वसमानाधिकरणारयतामावप्रतियोगित्वरूप है। गोरखविरोभिता 'सिमस्ये सति गोत्व का असामामाधिकरण्य' रूप है। एवं अश्वश्वविरोधिता 'वृत्तिमत्वे सति अश्वत्वासामानाधिकरम' रूप है। गगनादि अलिपराया में गोत्वावि को विरोभिता का प्यबहार नहीं होता है अत एवं गोस्वाबिदिरोशिता के शरीर में असिमरव' का निवेश है । उस निवेश के कारण ही गोस्वामिविरोधितावरक की कुक्षि में गोरखाभाषसमासायिकरणस्य का निवेश आवश्यक है। अन्यथा गोस्वसमानाधिकरणात्यन्ताभावप्रतियोगिरम गगनादि में अलिप्रसात होने के कारण केवल तबमात्र गोत्वादिविरोधिता का भवस्यक नहीं हो सकता । अतः उक्त प्रापतिरूप बाधक को दीक्षा कर संकीण धमों में आतित्वाभाव का समर्थन नहीं हो सकता। क्योंकि जातिनिरुद परस्पराभावसामानाधिकरणय परस्परामावस्याध्यता का अवस्था होमे में कोई प्रमाण नहीं है । अपि तु परस्परसभावसमानाधिकरण जिन मातियों में जिस प्रमाण से पररूपरसामानाधिकरम्प का पह होगा उस के विरोध में परस्पराभावप्तमानाधिकरण में परस्परामायव्याप्यता की सिद्धि नहीं हो सकेगी, क्योंकि उसके निश्चय में प्रतिबन्ध लग जायेगा। किन, संकीर्णयोरजातित्वे घटत्वमपि जातिनं स्यात् , पृथिवीत्वेन पराएरभाषानुपपचेः । अथ पृथिवीत्यादिन्याप्यं नानेव पटकम् , फुलालस्वर्णकारादिजन्यताकछेदकतया तमानात्वस्यावश्यकत्वात् । अत एवं घटत्वाध्यायं पृथिवीलादिकमेव किं न स्यात् । इति नाविनिगमः,
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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