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________________ ४४ [ पास्त्रमा स्त०७ लो.. समानात्ये तज्जयतामच्छेदकनीलल्यमान्धत्व-भास्वरत्वादिनानाबापत्तेः, अनुगनधीस्तु कश्चिसौसादृश्यादिति चेत् ? न, नीलादी नीलादेरसमवायिकारणस्नानतिप्रसंग पृथिवीत्वेन वत्रा हेतुन्वात , भाषकायें ससमवायफारणकन्यनियमाभायात, भावे वा जायसवावच्छिम प्रति द्रव्यत्वेन हेतुतयेवोपपसे, घटत्वस्य नानात्वे तज्जनकतारच्छेदकरयोगनिजातिनानात्वस्याभिषातत्वादेस्तदच्याप्यत्वस्य कल्पने 'पातिगौरवान् । [पटन्य जातिम्वरूप कसे होगा १] दूसरी बात यह है कि यदि संकीर्ण धर्म को जाति न माना जायगा तो घटस्व भी आति रूप म हो सकेगा क्योंकि पार्थिव और सौवर्ण विविध घटों में घटत्व के रहने से उसमें पृश्वीत्व के साथ स्याप्यम्यापकमाव न होने से पृथ्वीरव का किर्य है। पवि राज जि और उस पायाप्य घटत्य भिन्न भिन्न है। क्योंकि पषिष घट की कुलाल से प्रोर सोयर्ण घट को स्वर्णकार से उत्पत्ति होने के कारण कुलालजस्यताबपदक घटव और स्वर्णकारमन्यतापसददेवकघटत्व में मेद आवश्यक है। पृथ्वीस्वाति का स्मारय पाय भिन्न है । इस संदर्भ में इस प्रकार का विनिगमनाविरह का उद्धावन नहीं किया जा सकता कि 'पृथ्वीस्वाविण्याप्य घटत्व भाउ मिन्न माना पाय अथवा घटत्ययाप्य पृथ्वीत्वादि भिन्न भिन्न माना माय, क्योंकि यधपि दोनों को पक्षों में घरव-पृथ्वोत्व के सक्रिय का कारण हो सकता है तथापि घटस्य के नामास्व में विनिगमना यह है कि मूलाल एवं स्वर्णकार के जम्यतापमवक होने से घरस्व में विभिन्नता यावश्यक है। एवं पृथ्वीत्व के विभिन्नस्य में बाधक भी है जैसे, पृथ्वोत्व को भिन्न भिन्न मानने पर पृथ्वी के जन्यतापच्छेवका तीसत्व और गन्धक्ष्य में एष तेज के समयसापरचेतक भास्वरस्य में घिमिनस्व की प्राप्ति होगी, क्योंकि नीलस्वादि को एक मानने पर नीलरमायबस्छिन्न के प्रति विभिन्न पृथ्वोत्याषछिन्न को कारण मानने पर व्यतिरेक्व्याभिचार होगा। क्योंकि एक पृथ्वीत्वावछिन्न के प्रमाव में भी अन्य पृथ्वोस्वालियन से नीलस्वाद्ययन के उत्पति हो जाती है। प्रतः घटाव के विभिनत्य में कोई बाधक न होने से उसको माति मानने में कोई यात्रा महीं हो सकती, पोंकि पृथ्वीत्यादिध्याप्य घटस्थ में पृथ्वोत्याधि का सांग नहीं हो सकता। तथा, समस्त घटों में एकस्य के म गोमे पर भी पाविप और स्वयंघट में आकार का अतिशय साम्प से घटाकार अनुगतबुद्धि की उपसि हो सकती है ।" [पृथ्वीन्य को विभिन्न मानने में कोई आपनि नहीं है ] किस्सु या प्रतिपाचम ठीक नहीं है, क्योंकि पृथ्वीत्यादि को विभिन्न मानने पर भी पृथ्वी के जन्यतावच्छेदक मीनत्यादि में विभिनाय का आपाबन नहीं किया जा सकता। योंकि नीलश्नानवविन के प्रति पृम्धीत्वेन पृथ्वी को कारणता ही नहीं है। क्योंकि मोलाबाधवनि के प्रति पृथ्वीस्वावच्छिन को कारण म माना जाय तो भी अवयषीगत नौलादि में प्रथमवगत नोलावि मतमवायीकारण के प्रभाव से हो नीलस्यायवस्टिन की उत्पति की आपति का परिहार हो सकता है । भाषास्मककार्य अवश्यमेव समायिकारणजन्य होता है इस नियम के अनुरोध से मी पृथ्वीत्वाथ चिजन को नीलस्वाच्छित का समयामी कारण मानना उचित नहीं है, क्योंकि 'भाव कार्य समधायिकारणजन्य ही होता है इस नियम में कोई प्रमाण नहीं हैं, बस्कि इस नियम को न मानने में सावध है।
SR No.090421
Book TitleShastravartta Samucchaya Part 7
Original Sutra AuthorHaribhadrasuri
AuthorBadrinath Shukla
PublisherDivya Darshan Trust
Publication Year
Total Pages266
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari & Philosophy
File Size7 MB
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